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८. अद्वैत-वेदान्ती दार्शनिकों का ब्रह्माद्वैतवाद :
हरिभद्र ने ब्रह्माद्वैतवादी दार्शनिकों की इस मान्यता पर विचार किया है कि ब्रह्म ही एकमात्र वास्तविक सत्ता है, जबकि जगत् में ब्रह्म के स्थान पर इन-उन वस्तुओं के दीख पड़ने का कारण 'अविद्या' है; प्रत्युत्तर में हरिभद्र का कहना है कि अविद्या यदि ब्रह्म से अभिन्न है तो वह जगद-वैविध्य की प्रतीति का कारण उसी प्रकार नहीं बन सकती जैसे कि अकेला ब्रह्म नहीं बन सकता, और यदि वह ब्रह्म से भिन्न है तो ब्रह्माद्वैतवाद को तिलांजलि दे दी गई । यदि मान भी लिया जाए कि ब्रह्माद्वैतवादी के मतानुसार अविद्या ब्रह्म से अभिन्न है, तो भी इस मत के समर्थन में प्रमाण चाहिए; और हरिभद्र का कहना है कि प्रस्तुत प्रमाण यदि एक वास्तविक सत्ता है (जैसे कि कार्यसाधक हो सकने के लिए उसे होना चाहिए ) तो भी ब्रह्माद्वैतवाद को तिलांजलि दे दी गई । ब्रह्माद्वैतवादी को छूट देते हुए हरिभद्र कहते हैं कि जगत् के सब प्राणियों के प्रति समता-भावना जागृत करने के उद्देश्य से एक गौण अर्थ में यह भी कहा जा सकता है कि जगत् की सभी वस्तुएँ एकरूप हैं (अर्थात् ब्रह्मरूप हैं)यद्यपि मुख्य अर्थ में ऐसा कदापि नहीं कहा जा सकता । देखा जा सकता है कि यहाँ भी हरिभद्र एक सत्ताशास्त्रीय समस्या का समाधान आचारशास्त्र के क्षेत्र में खोज रहे हैं । ९. मीमांसक तथा कतिपय बौद्ध दार्शनिकों का सर्वज्ञताप्रतिषेधवाद :
सर्वज्ञता की सम्भावना-असम्भावना के प्रश्न को लेकर प्राचीन भारत के दार्शनिक सम्प्रदायों के बीच चली चर्चा का अपेक्षाकृत अधिक गहरा संबंध किन्ही धार्मिक समस्याओं से था, न कि किन्ही दार्शनिक समस्याओं से, लेकिन इस चर्चा ने दार्शनिक समस्याओं की परिधि को भी एक सीमा तक छुआ ही है । इस प्रश्न पर मीमांसक धर्मशास्त्रियों की तर्कसरणी निम्नलिखित प्रकार से चली : "धर्म तथा अधर्म अतीन्द्रिय वस्तुएँ हैं, अतः उनके संबंध में प्रामाणिक जानकारी न कोई मनुष्य करा सकता है, न किसी मनुष्य द्वारा रचित कोई ग्रंथ
और वह इसलिए कि अतीन्द्रिय वस्तुओं का ज्ञान कर सकना किसी मनुष्य के लिए संभव नहीं, फिर भी धर्म-अधर्म के संबंध में प्रामाणिक जानकारी का द्वार हमारे लिए बंद नहीं और वह इसलिए कि यह जानकारी हमें वेदों से प्राप्त हो सकती है, जो किसी ग्रंथकार की रचना न होकर एक नित्य (=अ-कर्तृक, अपौरुषेय) ग्रंथ-राशि है तथा इसीलिए उन सब दोषों से मुक्त हैं जो एक सामान्य
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