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________________ साहित्यमें 'शून्य' तथा अद्वैत-वेदान्तियों द्वारा रचित साहित्य में 'ब्रह्म' (शास्त्रवार्तासमुच्चय में हरिभद्र ने विज्ञानाद्वैतवाद, शून्यवाद तथा ब्रह्माद्वैतवाद, को एक एक करके अपनी आलोचना का लक्ष्य बनाया है) । विज्ञानाद्वैतवादी की मान्यता है कि जगत में प्रतीत होनेवाली सभी भौतिक वस्तुएँ मिथ्या हैं-जिस का अर्थ यह हुआ कि जगत् में 'विज्ञान' अथवा चैतन्य ही एकमात्र वास्तविक सत्ता है; इस मान्यता के विरुद्ध हरिभद्र का कहना है कि जगत् में प्रतीत होनेवाली भौतिक वस्तुएँ उसी प्रकार वास्तविक हैं जैसे कि 'विज्ञान' अथवा चैतन्य । विज्ञानाद्वैतवाद के विरुद्ध हरिभद्र द्वारा उठाए गए एक दूसरे तर्क का आधार उनकी यह मान्यता है कि चेतन-तत्त्व के बंध के लिए उत्तरदायी है इस तत्त्व का भौतिक कर्मों के साथ संयोग, जबकि उसके मोक्ष के लिए उत्तरदायी है उसका इन 'कर्मों के साथ संयोग-विच्छेद; हरिभद्र का कहना है कि सभी भौतिक वस्तुओं को , अ-वास्तविक घोषित करने वाले विज्ञानाद्वैतवादी की मान्यतानुसार न तो चेतनतत्त्व का बंध संभव होना चाहिए, न उसका मोक्ष । विज्ञानाद्वैतवादी को दी गई हरिभद्र की छूट कुछ कुछ उसी प्रकार की है जैसी कि क्षणिकवादी को दी गई उनकी छूट; क्योंकि उनका कहना है कि जगत् की भौतिक वस्तुओं को सारहीन-अर्थात् मोक्ष-प्राप्ति में अनुपयोगी तथा बाधक-बतलाने के उद्देश्य से उन्हें गौण अर्थ में मिथ्या भी कहा जा सकता है—यद्यपि मुख्य अर्थ में कदापि नहीं। स्पष्ट ही यहाँ भी हरिभद्र एक सत्ताशास्त्रीय समस्या का समाधान आचारशास्त्र के क्षेत्र में खोज रहे हैं । ७. माध्यमिक बौद्ध दार्शनिकों का शून्यवाद : हरिभद्र ने शून्यवादी दार्शनिकों के इस तर्क पर विचार किया है कि जगत् की सभी वस्तुएँ मिथ्या हैं, क्योंकि उनको न अविनाशी मानना युक्तिसंगत है, न विनाशी मानना; प्रत्युत्तर में हरिभद्र का कहना है कि यदि जगत् की सभी वस्तुएँ मिथ्या हैं तो शून्यवादी का प्रस्तुत तर्क तथा उसको कहने-सुननेवाले भी मिथ्या है और यदि प्रस्तुत तर्क तथा उसको कहने-सुननेवाले मिथ्या नहीं तो जगत् की सभी वस्तुएँ मिथ्या नहीं । शून्यवादी दार्शनिक को छूट देते समय हरिभद्र केवल इतना कहते हैं कि भगवान् बुद्ध ने जगत् की वस्तुओं को मिथ्या (अथवा शून्य) किसी अभिप्राय-विशेष से तथा कोटि-विशेष के शिष्यों की योग्यता को ध्यान में रखते हुए कहा होगा, न कि 'मिथ्या' (अथवा 'शून्य') शब्द के मुख्य अर्थ में। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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