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ग्यारहवाँ स्तबक
१. शब्दार्थसंबंध-खंडन का खंडन अन्ये त्वभिदध'त्यत्र युक्तिमार्गकृतश्रमाः ।
शब्दार्थयोर्न संबन्धो वस्तुस्थित्येह विद्यते ॥६४४॥
न्यायशास्त्र का परिश्रमपूर्वक अध्ययन करनेवाले कुछ दूसरे वादियों का कहना है कि एक शब्द तथा इस शब्द के अर्थ के बीच कोई संबंध वस्ततः नहीं । (उनका कहना है :)
टिप्पणी-प्रस्तुत कारिका से हरिभद्र जिस चर्चा का प्रारंभ करते है वह शास्त्रवार्तासमुच्चय की एक मात्र प्रमाणशास्त्रीय चर्चा है और इसका विषय है शब्दार्थसंबंध । क्षणिकवादी बौद्धों का तर्क है कि क्योंकि जगत् की प्रत्येक वस्तु दूसरी प्रत्येक वस्तु से भिन्न है और क्योंकि प्रत्येक वस्तु प्रतिक्षण भिन्न बनती रहती है इसलिए किसी वस्तु का द्योतन शब्द द्वारा नहीं किया जा सकता; (उनके कहने का आशय यह है कि जब एक शब्द अनिवार्यतः किन्हीं ऐसी अनेक वस्तुओं का द्योतन करता है जिनके बीच किसी प्रकार का सादृश्यविशेष पाया जाता है और जब किन्हीं दो वस्तुओं के बीच किसी प्रकार का सादृश्य पाया नहीं जाता तब यही कहना चाहिए कि कोई शब्द किसी वस्तु का द्योतन वस्तुतः नहीं करता)। दूसरी ओर, इन बौद्धों का तर्क है कि क्योंकि एक व्यक्ति द्वारा बोला गया वाक्य सच भी हो सकता है और झूठ भी इसलिए कोई भी वाक्य हमें यही बतला सकता है कि यहाँ वक्ता क्या कहना चाह रहा है न कि यह कि यहाँ वस्तुस्थिति कैसी है । क्षणिकवादी बौद्धों के इन दोनों ही तर्कों पर हरिभद्र की अपनी आपत्तियाँ हैं ।
न तादात्म्यं द्वयाभावप्रसंगाद् बुद्धिभेदतः । शस्त्राद्युक्तौ मुखच्छेदादिसंगात् समयस्थितेः ॥६४५॥
१. क का पाठ : 'त्येवं ।
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