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शास्त्रवार्त्तासमुच्चय
एक शब्द तथा उसके अर्थ के बीच तादात्म्यसंबन्ध नहीं; क्योंकि तादात्म्यसंबन्ध की दशा में एक शब्द तथा उसका अर्थ दो स्वतंत्र वस्तुएँ नहीं हो सकते; दूसरे, एक शब्द तथा उसके अर्थ का ज्ञान हम परस्पर पृथक् भाव से करते है; तीसरे, यदि एक शब्द तथा उसके अर्थ के बीच तादात्म्यसंबन्ध होता तो 'शस्त्र' आदि शब्दों का उच्चारण करते समय वक्ता का मुँह कट आदि जाना चाहिए; चौथे, एक शब्द किस अर्थ की प्रतीति कराएगा यह बात संकेतसिद्ध (परंपरासिद्ध) है ( स्वभावसिद्ध नहीं ) ।
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अर्थासंनिधिभावेन तद्दृष्टावन्यथोक्तितः । अन्याभावनियोगाच्च न तदुत्पत्तिरप्यलम् ॥६४६ ॥
एक शब्द तथा उसके अर्थ के बीच जन्य - जनक संबन्ध भी नहीं, क्योंकि अपने अर्थ (= अर्थभूत वस्तु) के उपस्थित न रहने पर भी शब्द उपस्थित रहता पाया जाता है, क्योंकि कभी कभी हम एक अर्थ (= वस्तु) को किसी अन्य ही शब्द से पुकार बैठते हैं, क्योंकि एक अर्थ को किसी अन्य ही शब्द द्वारा द्योतित करना संभव है, क्योंकि सत्ताशून्य पदार्थों को भी शब्द द्वारा द्योतित करना संभव है ।
टिप्पणी- कहने का आशय यह है कि यदि एक शब्द की उत्पत्ति का कारण वह वस्तु होती जिसका द्योतन यह शब्द करता है तो प्रस्तुत बातें संभव न होती ।
परमार्थैकतानत्वे शब्दानामनिबन्धना ।
न स्यात् प्रवृत्तिरर्थेषु दर्शनान्तरभेदिषु ॥६४७॥
यदि एक शब्द का अपने अर्थ से कोई वास्तविक ही संबन्ध होता तब जो हम शब्दों को ऐसे पदार्थों का द्योतन निराधार भाव से करते पाते हैं जिन्हें एक दर्शन के अनुयायी सत्ताशील मानते हैं तथा किसी दूसरे दर्शन के अनुयायी सत्ता - शून्य वह संभव न होता ।
अतीताजातयोर्वाऽपि न च स्यादनृतार्थता ।
वाचः कस्याश्चिदित्येषा बौद्धार्थविषया मता ॥ ६४८ ॥
इसी प्रकार उस दशा में शब्दों द्वारा अतीत तथा अनुत्पन्न पदार्थों का द्योतन किया जाना संभव न होता और न ही किसी व्यक्ति द्वारा बोला गया कोई शब्द (अर्थात् वाक्य) कभी असत्य सिद्ध होता । इन सब बातों को ध्यान में
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