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कोटि के साहित्य के प्रणेता दार्शनिक ही 'ताकिक' विशेषण के सच्चे अधिकारी हैं और इस विशेषण का प्रयोग हम उन्हीं के संबंध में करेंगे । मोटे तौर पर यह साहित्य निम्नलिखित चार उप-विभागों में विभक्त है ।
(१) न्याय-वैशेषिक तार्किकों द्वारा रचित । (२) मीमांसक तार्किकों द्वारा रचित । (३) बौद्ध तार्किकों द्वारा रचित । (४) जैन तार्किकों द्वारा रचित ।
[स्वयं शास्त्रवार्तासमुच्चय इन चार उप-विभागों में से चौथे के अन्तर्गत आती है क्योंकि हम देख चुके हैं कि ग्रंथ के अधिकांश भाग में प्राय: पूरे ग्रंथ में—कतिपय सत्ताशास्त्रीय प्रश्नों की चर्चा की गई है और अब हम यह भी जान लें कि इस ग्रंथ की रचना-शैली तार्किकतापूर्ण है। ] विभिन्न सम्प्रदायों के अनुयायी तार्किकों द्वारा रचित प्रस्तुत कोटि के साहित्य में एक-दूसरे की मान्यताओं का खंडन खुलकर हुआ है और यही कारण है कि हम हरिभद्र को अपने प्रतिद्वन्द्वी बौद्ध तार्किकों की सत्ताशास्त्रीय मान्यताओं के खंडन पर इतना परिश्रम करते पाते हैं । थोड़े आश्चर्य की बात तो यह है कि उन्होंने अपने प्रतिद्वन्द्वी न्याय-वैशेषिक तथा मीमांसक तार्किकों की सत्ताशास्त्रीय मान्यताओं के खंडन पर भी ऐसा ही परिश्रम क्यों नहीं किया, (हम देख चुके हैं कि न्यायवैशेषिक सम्प्रदाय द्वारा समर्थित ईश्वरवाद के खंडन के प्रसंग में हरिभद्र ने सत्ताशास्त्रीय प्रश्नों की कतई उपेक्षा की है और हम आगे देखेंगे कि उन्होंने मीमांसकों का खंडन सर्वज्ञता की सम्भावना-असम्भावना के प्रश्न को लेकर किया है, अर्थात् एक ऐसे प्रश्न को लेकर जिसका संबंध सत्ताशास्त्रीय समस्याओं के साथ तो अत्यन्त कम है ही, प्रमाणशास्त्रीय समस्याओं के साथ भी विशेष नहीं )। ऐसी दशा में इन १९० कारिकाओं को, जिनमें हरिभद्र ने सौत्रांतिक बौद्ध दार्शनिकों के क्षणिकवाद का खंडन किया है (तथा ६६ कारिकाओं वाले उस सातवें स्तबक को जिसमें उन्होंने जैन-दर्शन की सत्ताशास्त्रीय मान्यताओं का प्रतिपादन समर्थनपुर:सर किया है) शास्त्रवार्तासमुच्चय का हृदयस्थानीय मानना अनुचित न होगा ।
प्रस्तुत खंडन के चौथे स्तबक में आए भाग में आलोचना का लक्ष्य निम्नलिखित बौद्ध मान्यताएँ हैं
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