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दार्शनिक की 'प्रकृति' नित्य होते हुए भी रूपान्तरणशील ठीक उसी प्रकार है जैसे कि जैन-दर्शन की मान्यतानुसार विश्व की सभी जड़-चेतन वस्तुएँ नित्य होते हुए भी रूपान्तरणशील हैं । हरिभद्र ने सांख्य दार्शनिक को छूट दी है कि यदि वह अपनी 'प्रकृति' का वर्णन ठीक उसी प्रकार करे जैसे कि जैन दर्शन में 'कर्म-प्रकृति' का (अर्थात् 'कर्म' नामवाले भौतिक तत्त्व का) किया गया है तो उसका प्रस्तुत मत निर्दोष बन जाएगा। इस पर कहना होगा कि जहाँ तक प्रकृति के नित्य होते हुए भी रूपान्तरणशील होने का प्रश्न है वहाँ तक तो सांख्य दार्शनिक को जैन-दर्शन से कदाचित् कुछ नहीं सीखना, लेकिन यह एक विचारणीय बात है कि सांख्य दार्शनिक की 'प्रकृति' एक है तथा उसके रूपान्तरण की परिघि समूचा जड़-जगत् है, जबकि जैन-दर्शन की 'कर्मप्रकृतियाँ' अनेक हैं तथा उनके रूपान्तरण की परिघि जड़-जगत् का एक भाग मात्र है। ५. सौत्रान्तिक बौद्ध दार्शनिकों का क्षणिकवाद :
शास्त्रवार्तासमुच्चय में हरिभद्र ने जिस एक मान्यता के खंडन में सब से अधिक परिश्रम किया है वह है सौत्रान्तिक दार्शनिकों का क्षणिकवाद; क्योंकि हम देखते हैं कि इस खंडन ने ग्रंथ के चौथे स्तबक की सभी १३७ कारिकाओं को तथा छठे स्तबक की ६३ कारिकाओं में से ५३ को घेर रखा है (अर्थात् ७०० कारिकाओं वाले इस ग्रंथ की १९० कारिकाओं का सीधा संबंध प्रस्तुत खंडन से है)। इस ग्रंथ-भाग का सही मूल्यांकन कर सकने के लिए आवश्यक होगा कि भारतीय दर्शन के इतिहास से संबंधित दो-एक बातें ध्यान में रख ली जाएँ ।
प्राचीन भारत के दार्शनिक साहित्य में तार्किकता की वृद्धि क्रमशः हुई थी, और इस वृद्धि में सब से महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है कतिपय उन सम्प्रदायों ने जिन्हें पर्याप्त दृढ़ता के साथ यह विश्वास था कि विश्व के घटना-कलाप के बीच वर्तमान कार्यकारणसंबंध वास्तविक है तथा अनुमानगम्य है । इन सम्प्रदायों को पहचानने की कसौटी है उनके कतिपय अनुयायियों द्वारा रचित वह समृद्ध साहित्य जिसमें हम एक ओर अनुमान (तथा दूसरे ज्ञान-साधनों) के स्वरूप आदि से संबंधित गंभीर चर्चाएँ पाते हैं तथा दूसरी ओर कार्यकारणसंबंध के स्वरूप आदि से संबंधित गंभीर चर्चाएँ...-अर्थात् जिसमें हम एक ओर प्रमाणशास्त्र संबंधी गंभीर चर्चाएँ पाते हैं तथा दूसरी ओर सत्ताशास्त्र संबंधी गंभीर चर्चाएँ । प्रस्तुत
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