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________________ का भला-बुरा फल पानेवाला क्यों माना जाए (जैसे कि प्रत्येक पुनर्जन्मवादी कर्मवादी दार्शनिक मानता है) । इस सम्बन्ध में भी यह देखना सरल है कि यद्यपि हरिभद्र की वर्तमान आलोचना का सीधा लक्ष्य वे ईश्वरवादी भारतीय दार्शनिक हैं जो पुनर्जन्म की सम्भावना में विश्वास रखते हैं, लेकिन वह तत्त्वतः सभी ईश्वरवादी दार्शनिकों पर लागू होती है, चाहे वे पुनर्जन्म की सम्भावना में विश्वास रखते हों या न रखते हों । हरिभद्र यह मानने को अवश्य तैयार हैं कि 'ईश्वर' नाम उन महामानवों को दिया जा सकता है जिन्होंने मोक्ष की देहली पर पहुँच चुकने की अवस्था में ऐसे सत्-शास्त्रों का प्रणयन किया है जिनक्री शिक्षाओं का पालन करने के फलस्वरूप एक प्राणी को मोक्ष की प्राप्ति होती है तथा उनका उल्लंघन करने के फलस्वरूप बंध की। उनके कहने का आशय यह है कि एक प्राणी के बंध-मोक्ष के लिए यदि किसी दूसरे व्यक्ति को उत्तरदायी ठहराया ही जा सकता है, तो उक्त कोटि के किसी महामानवविशेष को तथा उसे भी उक्त अर्थविशेष में। ईश्वरवादी को दी गई हरिभद्र की यह छूट भी एक विषयान्तर-सा लगती है-इसी प्रकार जैसे भौतिकवादी को दी गई उनकी वह छूट एक स्पष्ट विषयान्तर थी । सांख्य दार्शनिकों का प्रकृति-पुरुषवाद प्राचीन भारत के दार्शनिक सम्प्रदायों में सांख्य अत्यन्त चिरकालीन है, यद्यपि कालान्तर में जाकर वह अपेक्षाकृत बलहीन हो गया लगता है। सांख्य दार्शनिकों की मूल मान्यताएँ दो हैं : पहली यह कि आत्मा-जिसका पारिभाषिक नाम 'पुरुष' है—एक सर्वथा अपरिवर्तिष्णु पदार्थ है, दूसरी यह कि यदि आत्माओं को छोड़ दिया जाए तो विश्व में पाई जानेवाली प्रत्येक वस्तु 'प्रकृति' नामवाले एक भौतिक तथा नित्य-पदार्थ का कोई रूपान्तरविशेष हुआ करती है। इनमें से पहली मान्यता के विरुद्ध हरिभद्र की आपत्ति है कि यदि आत्मा एक सर्वथा अपरिवर्तिष्णु पदार्थ है तो यह कहना कोई अर्थ नहीं रखता कि कोई आत्मा अपने अमुक क्रिया-कलाप के फलस्वरूप बंध की भागी बनती है तथा अमुक के फलस्वरूप मोक्ष की; उक्त दूसरी मान्यता के विरुद्ध उनकी आपत्ति है कि यदि प्रकृति एक नित्य पदार्थ है तो उसे रूपान्तरणशील नहीं माना जा सकता और यदि वह एक रूपान्तरणशील पदार्थ है तो उसे नित्य नहीं माना जा सकता । हरिभद्र की पहली आपत्ति का अपने स्थान पर औचित्य है; लेकिन उनकी दूसरी आपत्ति किसी गलतफहमी पर आधारित प्रतीत होती है, क्योंकि वस्तुत: सांख्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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