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दसवाँ स्तबक
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न ही सर्वज्ञ की सत्ता आगम (शास्त्र) द्वारा सिद्ध होती है, और वह इसलिए कि आगम में तो विधि (कर्मकाण्ड संबन्धी आदेश) आदि का ही प्रतिपादन पाया जाता है । और क्योंकि सर्वज्ञ प्रत्यक्ष प्रमाण का विषय नहीं इसलिए वह उपमान प्रमाण का भी विषय नहीं ।।
टिप्पणी-मीमांसक वेद को ही आगम मानता है और उसकी समझ है कि वेद की विषयवस्तु किन्हीं कर्मकाण्डों से संबन्धित आदेशप्रदान हैं न कि किन्हीं सत्ताशास्त्रीय समस्याओं से संबन्धित विवेचन ।
नार्थापत्त्याऽपि सर्वोऽर्थस्तं विनाऽप्युपपद्यते ।
प्रमाणपञ्चकावृत्तेस्तत्राभावप्रमाणता ॥५८३॥
अर्थापत्ति प्रमाण से भी सर्वज्ञ की सत्तासिद्ध नहीं होती, और वह इसलिए कि तथ्यभूत सभी बातें सर्वज्ञ की सत्ता स्वीकार न करने पर भी संभव बनी रहती हैं । इस प्रकार जब सर्वज्ञ पाँच प्रमाणों में से किसी का (अर्थात् प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, आगम अथवा अर्थापत्ति का) विषय नहीं तब यह बात सिद्ध हो गई कि वह अभाव प्रमाण का विषय है ।।
टिप्पणी-जब कोई तथ्यभूत बात क ख की सत्ता स्वीकार किए बिना संभव न बनती हो तो कहा जाता है कि यहाँ क की सहायता से ख का ज्ञान अर्थापत्ति प्रमाण ने कराया; लेकिन मीमांसक का कहना है कि तथ्यभूत ऐसी कोई भी बात नहीं जो सर्वज्ञ की सत्ता स्वीकार किए बिना संभव न बनती हो। कुमारिल भट्ट के अनुयायी, मीमांसकों ने प्रमाणों को छ प्रकार का माना है जिनके नाम हैं, प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द, उपमान, अर्थापत्ति, अभाव । उनके मतानुसार जिस वस्तु का ज्ञान प्रत्यक्ष आदि पाँच प्रमाण न करा पाते हों उसके अभाव का ज्ञान अभावप्रमाण कराता हैं; और क्योंकि उनकी समझ है कि सर्वज्ञ का ज्ञान प्रत्यक्ष आदि पाँच प्रमाण नहीं करा पाते इसलिए वे इस निष्कर्ष पर पहुचते हैं कि सर्वज्ञ के अभाव का ज्ञान अभावप्रमाण कराता है ।।
धर्माधर्मव्यवस्था तु वेदाख्यादागमात् किल ।
अपौरुषेयोऽसौ यस्माद् हेतुदोषविवर्जितः ॥५८४॥
जहाँ तक धर्म-अधर्म का स्वरूप निर्णय किए जाने का प्रश्न है वह 'वेद' नाम वाले आगम द्वारा संभव हो सकेगा, क्योंकि यह आगम किसी पुरुष विशेष की कृति न होने के कारण कर्तासंबन्धी दोषों से अछूता है ।
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