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दसवाँ स्तबक
१. मीमांसक के सर्वज्ञताखंडन का खंडन
अत्राप्यभिदधत्यन्ये सर्वज्ञो नैव विद्यते । तद्ग्राहकप्रमाऽभावादिति न्यायानुसारिणः ॥५८०॥
इस संबन्ध में भी कुछ दूसरे वादियों का कहना है कि किसी सर्वज्ञ व्यक्ति की सत्ता ही संभव नहीं, और अपने इस कथन के समर्थन में वे युक्ति देते हैं कि सर्वज्ञ का ज्ञान कराने वाला कोई प्रमाण हमें उपलब्ध नहीं । (इन वादियों की तर्कसरणि निम्नलिखित है) ।'
टिप्पणी-प्रस्तुत समूचे स्तबक में हरिभद्र सर्वज्ञता की संभावना असंभावना के प्रश्न की चर्चा करते हैं। उनकी अपनी समझ है कि प्रत्येक व्यक्ति मोक्षप्राप्ति के कुछ समय पूर्व सर्वज्ञ हो जाता है तथा सदा के लिए बना रहता है, इसके विपरीत मीमांसको का कहना है कि कोई व्यक्ति सर्वज्ञ हो ही नहीं सकता (और क्योंकि न्याय-वैशेषिक आदि दर्शनों में ईश्वर की कल्पना एक सर्वज्ञ व्यक्ति के रूप में की गई है इसलिए मीमांसक ईश्वर की सत्ता से ही इनकार करते हैं) । प्रस्तुत स्तबक में ये मीमांसक ही हरिभद्र के प्रतिद्वन्द्वी के रूप में हमारे सामने आते हैं ।
प्रत्यक्षेण प्रमाणेन सर्वज्ञो नैव गृह्यते । लिङ्गमप्यविनाभावि तेन किञ्चिन्न विद्यते ॥५८१॥
जहाँ तक प्रत्यक्ष प्रमाण का संबन्ध है वह तो हमें सर्वज्ञ का ज्ञान कराता ही नहीं, लेकिन सर्वज्ञ की सत्ता का ज्ञान कराने वाला ऐसा कोई हेतु (अनुमान हेतु) भी हमें उपलब्ध नहीं जिसकी उपस्थिति में सर्वज्ञ की उपस्थित अनिवार्यतः होती हो ।
न चागमेन यदसौ विध्यादिप्रतिपादकः । अप्रत्यक्षत्वतो नैवोपमानेनापि गम्यते ॥५८२॥
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