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नवाँ स्तबक
करती है इसलिए यह भी कहा जाना चाहिए कि शैलेशी - अवस्था का चारित्र सर्वथा नाशवान् नहीं ।
न चावस्थानिवृत्त्येह निवृत्तिस्तस्य युज्यते । समयातिक्रमे यद्वत् सिद्धभावश्च' तत्र वै ॥५७८ ॥
उक्त स्थिरता की एक अवस्थाविशेष के नाश को स्वयं उस स्थिरता का नाश मानना युक्तिसंगत नहीं— उसी प्रकार जैसे मोक्ष अवस्था के एक समयविशेष के बीत जाने पर भी मोक्ष अवस्था ज्यों की त्यों बनी रहती है (ख के पाठानुसार : उसी प्रकार जैसे मोक्ष अवस्था के एक समयविशेष के बीतने को स्वयं मोक्ष अवस्था की समाप्ति मानना युक्तिसंगत नहीं ) ।
टिप्पणी-- हरिभद्र का आशय यह है कि शैलेशी अवस्था के समय स्थिरता के साथ कर्मनाश की प्रक्रिया भी चल रही थी जबकि मोक्ष दशा में यह प्रक्रिया नहीं चल रही होती है, फिर भी इसका यह अर्थ नहीं कि मोक्षदशा में उक्त स्थिरता ही नष्ट हो गई उसी प्रकार जैसे कि एक मुक्त आत्मा की मोक्ष - दशा जिस कालभाग से अब संयुक्त है उससे आगे संयुक्त नहीं रहेगी, फिर भी इसका यह अर्थ नहीं कि वह मोक्ष दशा ही आगे नहीं बनी रहेगी ।
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ज्ञानयोगादतो मुक्तिरिति सम्यग् व्यवस्थितम् ।
तन्त्रान्तरानुरोधेन गीतं चेत्थं न दोषकृत् ॥५७९ ॥
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इस प्रकार यह सिद्धान्त समुचित ठहरता है कि 'ज्ञानयोग' से मोक्ष की प्राप्ति होती है; इस सिद्धान्त को इस रूप में रखने में भी कोई दोष नहीं और वह इसलिए कि कुछ दूसरे वादी (उदाहरण के लिए वेदान्ती) उसे इसी रूप में रखना चाहेंगे ।
टिप्पणी- हरिभद्र का आशय यह है कि यद्यपि वे वस्तुतः दर्शन, ज्ञान तथा चारित्र को ही मोक्षसाधन मानते हैं लेकिन क्योंकि उन्होंने मोक्ष के चरम साधन को 'ज्ञानयोग' नाम दिया है उनके मत की संगति अद्वैत वेदान्ती आदि उन दार्शनिकों के मत से भी बैठ जाती है जो ज्ञान को ही मोक्ष का साधन मानते हैं ।
१. ख का पाठ : सिद्धभावस्य ।
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