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________________ १८४ शास्त्रवार्तासमुच्चय जिसे एक व्यक्ति मोक्षप्राप्ति के ठीक पहले करता है और जिसका अवधिकाल केवल इतना है कि जितने में 'अ, इ, उ, ऋ, लु' इन पाँच वर्गों का उच्चारण किया जा सके । 'शैलेशी' शब्द का सम्बन्ध 'शैल+ईश' से जोड़ कर कहा जाता है कि यह पर्वतराज जैसी निश्चलता की अवस्था है जबकि उसका सम्बन्ध 'शील+ईश' से जोड़कर कहा जाता है कि वह सदाचार की पराकाष्ठा की अवस्था है, प्रस्तुत कारिका में हरिभद्र कह रहे हैं 'शैलेशी-अवस्था' 'ज्ञानयोग' की पराकाष्ठा का ही नाम है । धर्मस्तच्चात्मधर्मत्वान्मुक्तिदः शुद्धिसाधनात् । अक्षयोऽप्रतिपातित्वात् सदा मुक्तौ तथा स्थितेः ॥५७६॥ यह शैलेशी नाम वाली स्थिरता आत्मा का धर्म होने के कारण धर्म कहलाती है, शुद्धि (=कर्ममुक्ति) का कारण होने के कारण मोक्षदायिनी कहलाती है, कभी नष्ट न होने के कारण अक्षय कहलाती है—जबकि उसके कभी नष्ट न होने का कारण यह है कि वह अपने स्थिरता रूप से मोक्षदशा में भी सदा वर्तमान बनी रहती है (अर्थात् क्योंकि शैलेशी जैसी स्थिरता मोक्षदशा में भी सदा वर्तमान बनी रहती) है । चारित्रपरिणामस्य निवृत्तिर्न च सर्वथा ।। सिद्ध उक्तो यतः शास्त्रे न चारित्री न चेतरः ॥५७७॥ सचमुच, शैलेशी अवस्था के समय पाए जाने वाले (स्थिरतारूप) चारित्र का सर्वथा नाश कभी नहीं हुआ करता; क्योंकि शास्त्रों में कहा गया है कि एक सिद्ध व्यक्ति (=मोक्ष प्राप्त कर चुकने वाला व्यक्ति) न चारित्री होता है न अचारित्री । टिप्पणी-प्रस्तुत कारिका में हरिभद्र इस शंका का समाधान कर रहे हैं कि यदि आत्मा की सभी अवस्थाएँ नाशवान् हैं तो शैलेशीअवस्था के समय का चारित्र भी नाशवान् क्यों नहीं; उनका कहना यह है कि शैलेशी अवस्था के समय एक आत्मा अपने अवशिष्ट कर्मों का नाश कर रही होती है और क्योंकि यह कर्मनाश की प्रक्रिया शैलेशी-अवस्था के बाद (अर्थात् मोक्ष अवस्था में) नहीं चलती इसलिए कहा जा सकता है कि शैलेशी अवस्था का चारित्र भी एक सीमा तक नाशवान् है, लेकिन क्योंकि एक आत्मा शैलेशी अवस्था के शेष सभी धर्मों को (जिनमें स्थिरता शामिल है) लिए हुए ही मोक्ष अवस्था में प्रवेश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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