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नवाँ स्तबक
१८३
'केवल' ।
टिप्पणी-जैसा कि पहले कहा जा चुका है, एक व्यक्ति में सम्यक् दर्शन, सम्यक्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र का उदय क्रमशः होता है । प्रस्तुत कारिका में आया 'शुद्ध चारित्र' शब्द 'सम्यक् चारित्र' का ही पर्याय है और उसका अर्थ है 'सभी प्रकार के चरित्रदोषों से सर्वथा मक्ति की अवस्था । जैनों की मान्यता है कि इस अवस्था को प्राप्त करने वाला व्यक्ति सर्वज्ञ हो जाता है तथा अपने इसी जन्म में मोक्ष अवश्य प्राप्त करता है। [सर्वज्ञप्राप्ति के बाद के अपने अवशिष्ट जीवनकाल में यह व्यक्ति अपने अवशिष्ट कर्मों का क्षय करता है] प्रस्तुत कारिका में आए 'केवल' शब्द का अर्थ सर्वज्ञता ही है; (इस शब्द का एक कम प्रचलित अर्थ मोक्ष भी है और प्रस्तुत प्रसंग में उसे लेना भी कोई विशेष कठिनाई उपस्थित नहीं करेगा) ।
ततः स सर्वविद् भूत्वा भवोपग्राहिकर्मणः ।
ज्ञानयोगात् क्षयं कृत्वा मोक्षमाप्नोति शाश्वतम् ॥५७३॥
तब उक्त प्राणी सर्वज्ञ हो जाता है तथा 'ज्ञानयोग' की सहायता से उन कर्मों का क्षय करता है जो संसार में जन्म दिलाने वाले हैं; और अन्त में जाकर वह सदा के लिए टिकने वाली मोक्ष प्राप्त करता है।
टिप्पणी-पहले स्तबक की क्रमांक २० आदि वाली कारिकाओं में हरिभद्र 'ज्ञानयोग' (अथवा 'संज्ञानयोग') शब्द का प्रयोग कर चुके हैं; प्रस्तुत से अगली कारिका में वे स्वयं इस बात की स्मृति दिलाते हैं ।
ज्ञानयोगस्तपः शुद्धमित्यादि यदुदीरितम् ।
ऐदम्पर्येण भावार्थस्तस्यायमभिधीयते ॥५७४॥
पहले जो हमने 'ज्ञानयोग' को शुद्ध तप आदि कहा था उसी का पूर्वापरसंगत सारकथन अब यहाँ किया जा रहा है ।
ज्ञानयोगस्य योगीन्द्रैः परा काष्ठा प्रकीर्तिता ।
शैलेशीसंज्ञितं स्थैर्यं ततो मुक्तिरसंशयम् ॥५७५॥
उत्तम योगियों ने ज्ञानयोग की पराकाष्ठा माना है 'शैलेशी' नाम वाली स्थिरिता (=समाधि) को-जो निश्चय ही मोक्षप्राप्ति का कारण बनती है ।
टिप्पणी-जैन परंपरा में 'शैलेशी' नाम उस समाधि को दिया गया है
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