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शास्त्रवार्तासमुच्चय कामी पुरुष किसो स्त्रीविशेष के संबन्ध में (ऐसे क्रियाकलाप को भी कर पाता है जो अन्य पुरुषों के लिए दुष्कर है)।
उपादेयविशेषस्य न यत् सम्यक् प्रसाधनम् ।
दुनोति चेतोऽनुष्ठानं तद्भावप्रतिबन्धतः ॥५६८॥
जिस वस्तुविशेष को (अर्थात् मोक्ष को) उसने प्राप्त करने योग्य समझ लिया है उसकी प्राप्ति का समुचित साधन जो क्रियाकलाप नहीं वह उसके मन को दुःखी, करता है, और वह इसलिए कि उसका मन इस वस्तुविशेष में बन्धा हुआ है।
ततश्च दुष्करं तन्न सम्यगालोच्यते यदा ।
अतोऽन्यद् दुष्करं न्यायाद् हेयवस्तुप्रसाधकम् ॥५६९॥
ऐसी दशा में ध्यानपूर्वक सोचने पर लगता है कि मोक्ष की प्राप्ति का साधनभूत क्रियाकलाप उसके लिए दुष्कर सिद्ध नहीं होता; उसके लिए दुष्कर सिद्ध होता है-और ठीक ही-शेष वह सब क्रियाकलाप जो उन वस्तुओं की प्राप्ति का साधन हैं जिन्हें उसने त्याग करने योग्य समझ लिया है ।
व्याधिग्रस्तो यथाऽऽरोग्यलेशमास्वादयन् बुधः । कष्टेऽप्युपक्रमे धीरः सम्यक् प्रीत्या प्रवर्तते ॥५७०॥ संसारख्याधिना ग्रस्तस्तद्वज्ज्ञेयो नरोत्तमः ।
शमारोग्यलवं प्राप्य भावतस्तदुपक्रमे ॥५७१॥
जिस प्रकार वह बद्धिमान् व्यक्ति जो व्याधि से पीड़ति है लेकिन जिसने आरोग्य का थोड़ा आस्वाद कर लिया है (पूर्ण आरोग्य की प्राप्ति के निमित्तभूत) कष्टदायी करणीयों को भी धैर्यपूर्वक, विधिपूर्वक, प्रसन्नतापूर्वक सम्पन्न करता है उसी प्रकार संसार-व्याधि से पीड़ित वह नरश्रेष्ठ जिसने शान्तिरूपी आरोग्य का थोड़ा आस्वाद कर लिया है मोक्षप्राप्ति के निमित्तभूत करणीयों को रसपूर्वक सम्पन्न करता है ।।
प्रवर्तमान एवं च यथाशक्ति स्थिराशयः । शुद्धं चारित्रमासाद्य केवलं लभते क्रमात् ॥५७२॥
और इस प्रकार से यथाशक्ति क्रियासंपादन करते चला जाने वाला यह स्थिरचित्त प्राणी पहले 'शुद्ध चारित्र' प्राप्त करता है तथा तत्पश्चात् क्रमश:
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