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नवाँ स्तबक
१८१ मन को प्रशान्त बनाकर तथा अत्यन्त गद्गद् भाव से निम्नलिखित प्रकार के मननपूर्ण एवं यथार्थ चिन्तन में डूबता है ।
जन्ममृत्युजराव्याधिरोगशोकाद्युपद्रुतः । क्लेशाय केवलं पुंसामहो भीमो महोदधिः ॥५६३॥
अहो ! जन्म, मरण, बुढ़ापा, व्याधि, रोग, शोक आदि उपद्रवों वाला यह भयानक संसारसागर प्राणियों को केवल क्लेश ही देता है ।
सुखाय तु परं मोक्षो जन्मादिक्लेशवर्जितः ।
भयशक्त्या' विनिर्मुक्तो व्याबाधावर्जितः सदा ॥५६४॥
दूसरी ओर, मोक्ष प्राणियों को परम सुख देती है-वह मोक्ष जो जन्म आदि क्लेशों से शून्य है, भय की संभावना तक से शून्य है, सब प्रकार की उत्सुकता से शून्य है।
हेतुर्भवस्य हिंसादिर्दुःखाद्यन्वयदर्शनात् ।
मुक्तेः पुनरहिंसादिाबाधाविनिवृत्तितः ॥५६५॥
हिंसा आदि संसार का कारण हैं और वह इसलिए कि हिंसा आदि तथा संसार दोनों में दुःख आदि समान रूप से वर्तमान हैं; इसी प्रकार, अहिंसा आदि मोक्ष का कारण हैं और वह इसलिए कि अहिंसा आदि तथा मोक्ष दोनों में उत्सुकता का अभाव (समान रूप से) वर्तमान है ।
बुद्ध्वैवं भवनैर्गुण्यं मुक्तेश्च गुणरूपताम् ।
तदर्थं चेष्टते नित्यं विशुद्धात्मा यथागमम् ॥५६६॥
इस प्रकार संसार को गुणों से शून्य तथा मोक्ष को गुणों से सम्पन्न समझकर यह विशुद्धात्मा प्राणी शास्त्र का अनुसरण करते हुए मोक्ष के प्रति चेष्टाशील रहता है।
दुष्करं क्षुद्रसत्त्वानामनुष्ठानं करोत्यसौ । मुक्तौ दृढानुरागत्वात् कामीव वनितान्तरे ॥५६७॥
मोक्ष में दृढ अनुरागवाला होने के कारण यह प्राणी ऐसे क्रियाकलाप को भी कर पाता है जो क्षुद्र प्राणियों के लिए दुष्कर है-उसी प्रकार जैसे एक
१. क का पाठ : भव्यशक्त्या
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