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शास्त्रवार्तासमुच्चय टिप्पणी--मीमांसकों का मत है कि वेद एक ऐसी ग्रंथराशि है जिनका कोई कर्ता नहीं; और क्योंकि किसी ग्रंथ में दोषों के पाए जाने का एकमात्र कारण उस ग्रंथ के कर्ता में रहने वाले कोई दोष हुआ करते हैं इसलिए वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि वेद एक सर्वथा निर्दोष ग्रंथराशि है । वस्तुत: वेदों को एक सर्वथा निर्दोष ग्रंथराशि मान बैठने के फलस्वरूप ही मीमांसकों ने यह कल्पना की है कि वेदों का कोई कर्ता नहीं ।
आह चालोकवद् वेदे सर्वसाधारणे सति । . धर्माधर्मपरिज्ञाता किमर्थ कल्प्यते नरः ॥५८५॥
कहा भी है कि जब प्रकाशरूप वेद सब प्राणियों को समान भावसे उपलब्ध है ही तब धर्म तथा अधर्म का साक्षात्कार करनेवाले किसी पुरुष की कल्पना क्यों की जाए ।
ईष्टापूर्तादिभेदोऽस्मात् सर्वलोकप्रतिष्ठितः ।
व्यवहारप्रसिद्ध्यैव यथैव दिवसादयः ॥५८६॥
धर्म के ईष्ट पूर्त आदि प्रकारों की सब लोगों के बीच प्रतिष्ठा वेद द्वारा ही कराई गई है और इस प्रतिष्ठा का प्रमाण है वैदिक व्यवहार (=वैदिक कर्मकाण्ड) की लोगों के बीच प्रसिद्धि; यह लोकप्रसिद्धि उसी प्रकार की है जैसे दिन आदि (अर्थात् दिन, मास, ऋतु, वर्ष आदि) से संबंधित लोकप्रसिद्धि ।
टिप्पणी-मीमांसक का आशय यह है कि जिस प्रकार दिन, मास, ऋत. वर्ष आदि से संबन्धित व्यवहार जनता अनादि काल से करती चली आई है वैसे ही वह वैदिक कर्मकाण्डों का अनुष्ठान भी करती चली आई है।
ऋत्विग्भिमन्त्रसंस्कारैर्ब्राह्मणानां समक्षतः ।
अन्तर्वेद्यां तु यद् दत्तमिष्टं तदभिधीयते ॥५८७॥
'इष्ट' उस दान को कहते हैं जिसे ऋत्विजों ने, वेदी के बीच बैठकर, ब्राह्मणों की सहायता से तथा मंत्रसंस्कारपूर्वक दिया है ।
टिप्पणी-'ऋत्विज्' पुरोहित को कहते हैं, लेकिन प्रसंग को देखते हुए यहाँ यहीं समझना चाहिए कि प्रस्तुत दान यजमान ने अपने पुरोहितों की सहायता से दिया है न कि पुरोहितों ने स्वयं दिया है। इसी प्रकार वेदी का अर्थ समझना चाइए यज्ञमण्डप-न कि यज्ञाग्निस्थल । '
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