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आठवाँ स्तबक
(१) ब्रह्माद्वैतवाद-खंडन अन्ये त्वद्वैतमिच्छन्ति सद्ब्रह्मादिव्यपेक्षया । सतो यद् भेदकं नान्यत् तच्च तन्मात्रमेव हि ॥५४३॥
कुछ दूसरे वादी ब्रह्म आदि की सत्ता को आधार बना कर अद्वैतवाद की स्थापना करते हैं (अर्थात् इस वाद की कि जगत् में एकमात्र अमुक पदार्थ ही-उदाहरण के लिए, ब्रह्म ही-वस्तुतः सत्ताशील है); इनका कहना है कि एकमात्र सत्ताशील पदार्थ में भेदों को जन्म देना किसी भी वस्तु के लिए संभव नहीं और वह इसलिए कि यह वस्तु स्वयं भी तो सत्ताशील रूप ही होगी ।
टिप्पणी प्रस्तुत स्तबक में हरिभद्र कुछ ऐसी आपत्तियाँ उपस्थित करते हैं जो सभी प्रकार के अद्वैत वादों पर लागू होती हैं-यद्यपि वे दृष्टान्त रूप से अपने सामने ब्रह्माद्वैतवाद का सिद्धान्त रखते हैं ।
यथा विशुद्धमाकाशं तिमिरोपप्लुतो जनः । संकीर्णमिव मात्राभिभिन्नाभिरभिमन्यते ॥५४४॥ तथेदममलं ब्रह्म निर्विकल्पमविद्यया ।
कलुषत्वमिवापन्नं भेदरूपं प्रकाशते ॥५४५॥
जिस प्रकार तिमिर रोग से पीड़ित नेत्रों वाला व्यक्ति विशुद्ध आकाश को इन उन वस्तुओं से भरा समझ बैठता है उसी प्रकार अविद्या के कारण यह निर्मल, निर्विकल्प ब्रह्म कलुषित सा हुआ तथा विभिन्न रूपों वाला प्रतीत होने लगता है ।
अत्राप्येवं वदन्त्यन्ये अविद्या न सतः पृथक् । तच्च तन्मात्रमेवेति भेदाभासोऽनिबन्धनः ॥५४६॥
इस संबन्ध में भी कुछ दूसरे वादियों का कहना है कि अविद्या उस सत्ताशील पदार्थ से भिन्न नहीं (जिसे प्रस्तुत वादी एकमात्र सत्ताशील पदार्थ मानता
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