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आठवाँ स्तबक
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है) जबकि वह सत्ताशील पदार्थ एकमात्र स्वयं ही है (अर्थात् अपने से अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं), और ऐसी दशा में जगत् में विभिन्न रूपों का प्रतीतिगोचर होना एक अकारण बात सिद्ध होती है ।
टिप्पणी- हरिभद्र का आशय यह है कि जब सभी वस्तुएँ केवल सत्रूप हैं तब अविद्या भी केवल सत्रूप ही हुई, और ऐसी दशा में यह कहना कि एक सत् अविद्यावश अनेक सा लगने लगता है यही अर्थ रखता है कि एक सत् स्वतः (= अकस्मात् अकारण ) अनेक सा लगने लगता है ।
सैवाथाभेदरूपाऽपि भेदाभासनिबन्धनम् । प्रमाणमन्तरेणैतदवगन्तुं न शक्यते ॥५४७॥
कहा जा सकता है कि अविद्या उक्त एकमात्र सत्ताशील पदार्थ से अभिन्न होते हुए भी जगत् में विभिन्न रूपों के प्रतीतिगोचर होने का कारण बनती है; लेकिन इस पर हमारा उत्तर है कि यह बात प्रमाण द्वारा सिद्ध की गई हुए बिना समझ में आने वाली नहीं ।
भावेऽपि च प्रमाणस्य प्रमेयव्यतिरेकतः ।
ननु नाद्वैतमेवेति तदभावेऽप्रमाणकम् ॥५४८॥
और यदि प्रमेय से अतिरिक्त प्रमाण की सत्ता मान ली गई तो यह सिद्धान्त स्थिर नहीं रहा कि जगत् में कोई एक ही पदार्थ सत्ताशील है; दूसरी ओर, यदि प्रमेय से अतिरिक्त प्रमाण की सत्ता नहीं तो उक्त सिद्धान्त प्रमाणहीन ठहरता है ।
टिप्पणी- हम देख चुके हैं कि यही तर्क हरिभद्र ने शून्याद्वैतवाद के विरुद्ध भी उपस्थित किया था ।
विद्याऽविद्यादिभेदाच्च स्वतन्त्रेणैव बाध्यते ।
तत्संशयादियोगाच्च प्रतीत्या च विचिन्त्यताम् ॥५४९ ॥
सत्ता - अद्वैत का सिद्धान्त इस आधार पर भी बाधित सिद्ध होता है कि प्रस्तुत वादी के अभीष्ट शास्त्रग्रन्थ स्वयं ही विद्या, अविद्या आदि के बीच भेद की बात करते हैं तथा वे स्वयं ही अपने प्रतिपाद्य सिद्धान्त के संबन्ध में संशय आदि की संभावना स्वीकार करते हैं (जबकि संशय आदि वे वे परस्पर भिन्न पदार्थ हैं); इसके अतिरिक्त यह सिद्धान्त प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर भी बाधित
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