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________________ १७२ शास्त्रवार्तासमुच्चय कि जगत् की प्रत्येक वस्तु क्षणिक है तब तो प्रत्येक प्रत्यभिज्ञा अनिवार्यतः भ्रान्त ठहरेगी, लेकिन योगिअनुभव इस प्रश्न पर क्या निर्णय देता है यह निश्चय करना सरल नहीं । अगली कारिका इस आशय को और भी स्पष्ट कर देती है । नाना योगी विजानात्यनाना नेत्यत्र न प्रमा । देशनाया विनेयानुगुण्येनापि प्रवृत्तितः ॥५३९॥ योगी को जगत् की वस्तुएँ परस्पर भिन्न रूप में दीखती है परस्पर अभिन्न रूप में नहीं, इस बात के पक्ष में कोई प्रमाण नहीं; और जहाँ तक उपदेशों का संबन्ध है (अर्थात् जहाँ तक इस बात का संबन्ध है कि किन्हीं सत्-योगियों के उपदेशों में जगत् की वस्तुएँ परस्पर भिन्न बतलाई गई हैं) वे किन्हीं विशिष्ट प्रकार के शिष्यों की किन्हीं विशिष्ट प्रकार की योग्यताओं को ध्यान में रखकर दिए गए हो सकते हैं । या च लूनपुनर्जातनखकेशतृणादिषु । इयं संलक्ष्यते साऽपि तदाभासा न सैव हि ॥५४०॥ और जो कटकर फिर उगे हुए नाखून, बाल, घास आदि में 'यह वही है' इस प्रकार की प्रतीति होती है वह सच्ची प्रत्यभिज्ञा न होकर प्रत्यभिज्ञा का भ्रम है । प्रत्यक्षाभासभावेऽपि नाप्रमाणं यथैव हि । प्रत्यक्षं तद्वदेवेयं प्रमाणमवगम्यताम् ॥५४१॥ जिस प्रकार प्रत्यक्ष का भ्रम संभव होने पर भी यह नहीं कहते कि सभी प्रत्यक्ष अप्रमाण रूप हैं उसी प्रकार (प्रत्यभिज्ञा का भ्रम संभव होने पर भी) हमें प्रत्यभिज्ञा को प्रमाण मानना चाहिए । मतिज्ञानविकल्पत्वान्न चानिष्टिरियं यतः । एतबलात् ततः सिद्धं नित्यानित्यादि वस्तुनः ॥५४२॥ और क्योंकि प्रत्यभिज्ञा ‘मतिज्ञान' का ही एक भेद है इसलिए उसे प्रमाण मानना हम जैनों के लिए अपसिद्धान्त भी नहीं । अतः प्रत्यभिज्ञारूप प्रमाण के बल पर हम यह सिद्ध कर पाते हैं कि जगत् की वस्तुएँ नित्यता-अनित्यता आदि धर्मयुगलों से सम्पन्न हैं । १. क का पाठ : चानिष्ठि' । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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