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सातवाँ स्तबक
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होने पर भी उनके संबंध में 'यह वही है' इस प्रकार की प्रत्यभिज्ञा हो सकती है यदि मान लिया जाए कि इन दोनों वस्तुओं में एक नित्य (तथा 'सामान्य' अथवा 'जाति' नाम वाला) पदार्थ समान रूप से विद्यमान है; लेकिन इस पर हमारा उत्तर है; कि प्रत्यभिज्ञा का स्वरूप निरूपण इस प्रकार से करना भी उचित नहीं क्योंकि उस दशा में हमारी इस तथाकथित प्रत्यभिज्ञा का रूप 'यह वही है' ऐसा न होकर 'वही इन (दोनों) में है' ऐसा होना चाहिए ।
टिप्पणी प्रस्तुत कारिका में समालोचित मान्यता एक न्यायवैशेषिकमान्यता है जिसे किन्हीं ऐसी वस्तुस्थितिओं के स्वरूपनिरूपण के लिए स्वीकार किया गया है जहाँ प्रतिक्षण होता हुआ परिवर्तन भ्रान्तिवश स्थिरता समझ लिया जाता है । उदाहरण के लिए, न्यायवैशेषिक मतानुसार एक जीवित शरीर प्रतिक्षण नया शरीर बनता रहता है, एक जलती हुई दीपशिखा प्रतिक्षण नई दीपशिखा बनती रहती है यद्यपि इन दोनों ही स्थितियों में स्थिरता की प्रतीति हमें सामान्यतः (लेकिन भ्रान्तिवश) होती है ।
सादृश्याज्ञानतो न्याय्या न विभ्रमबलादपि । एतद्द्वयाग्रहे युक्तं न च सादृश्यकल्पनम् ॥५३७॥
यह कहना भी युक्तिसंगत नहीं कि दो वस्तुओं के बीच सादृश्य का जब हमें अज्ञान होता है तब हम अमवश इन वस्तुओं के संबन्ध में 'यह वही है' इस प्रकार की प्रत्यभिज्ञा कर बैठते हैं, क्योंकि ये दो वस्तुएँ जब तक एक दूसरे से पृथक् रूप में न जानी जाएँ तब तक उनके संबन्ध में यह नहीं कहा जा सकता कि वे एक दूसरे के सदृश हैं ।
न च भ्रान्ताऽपि सद्बाधाऽभावादेव कदाचन ।
योगिप्रत्ययतद्भावे प्रमाणं नास्ति किञ्चन ॥५३८॥
यह बात भी नहीं कि प्रत्यभिज्ञा स्वभावतः ही भ्रान्त हुआ करती है, और वह इसलिए कि प्रत्यभिज्ञा के संबन्ध में कोई युक्तिसंगत बाधा हमें कहीं भी प्राप्त नहीं होती; दूसरी ओर, यह मानने के पक्ष में भी कोई प्रमाण नहीं कि योगि-अनुभव प्रत्यभिज्ञा को भ्रान्त सिद्ध कर देगा।
टिप्पणी-हरिभद्र का आशय यह है कि यदि योगिअनुभव यह बतलाए
१. क का पाठ : यस्तद्भावे ।
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