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शास्त्रवार्तासमुच्चय
यदि जगत् की वस्तुएँ रूपरूपान्तर धारण करने वाली न हो तो प्रत्यभिज्ञा का होना कोई युक्तिसंगत बात नहीं, क्योंकि प्रत्यभिज्ञा के आधार पर एक वस्तु अपने स्थितिसमय आदि की दृष्टि से पहले की अपेक्षा भिन्न रूप में जानी जाती है लेकिन अपने स्वरूप आदि की दृष्टि से वह पहले की अपेक्षा अभिन्न रूप में जानी जाती है।
एकान्तैक्ये 'न नाना यन्नानात्वे चैकमप्यदः ।
अतः कथं नु तद्भावः तदेतदुभयात्मकम् ॥५३४॥
यदि कोई वस्तु सदा सर्वथा एक रूप रहा करती है तब उसे कभी पहले की अपेक्षा भिन्नरूप में नहीं जाना जा सकता है; और यदि वह सदा सर्वथा भिन्न रूप बनती रहती है तब उसे कभी पहले की अपेक्षा अभिन्न रूप में कभी नहीं जाना जा सकता । ऐसी दशा में इस वस्तु के सम्बन्ध में 'यह वही है' इस प्रकार की प्रत्यभिज्ञा कैसे संभव होगी ? अत: सिद्ध हुआ कि एक वस्तु भेद तथा अभेद (अथवा नाश तथा स्थिरता) दोनों धर्मों से सम्पन्न है।
तस्यैव तु तथाभावे कथञ्चिद्भेदयोगतः । प्रमातुरपि तद्भावात् युज्यते मुख्यवृत्तितः ॥५३५॥
लेकिन जब एक वस्तु को रूप-रूपान्तर धारण करने वाली मान लिया जाए तब उसका किसी सीमा तक पहले से भिन्न हो जाना भी संभव बन जाता है; दूसरी ओर, प्रमाता का भी ऐसा ही स्वभाव है (अर्थात् वह भी एक सीमा तक नाश से सम्पन्न है तथा एक सीमा तक स्थिरता से) । ऐसी दशा में इस वस्तु के संबंध में 'यह यह वही है' इस प्रकार की प्रत्यभिज्ञा वास्तविक अर्थ में संभव बन जाती है ।
टिप्पणी-हरिभद्र का आशय यह है कि प्रत्येक प्रमाता तथा प्रत्येक प्रमेय नाश तथा स्थिरता दोनों से सम्पन्न है यही वस्तुस्थिति प्रत्यभिज्ञा का होना संभव बनाती है।
नित्यैकयोगतो व्यक्तिभेदेऽप्येषा न संगता ।
तदिहेति प्रसंगेन तदेवेदमयोगतः ॥५३६॥ कहा जा सकता है कि दो वस्तुओं के व्यक्तिगत रूप से परस्पर भिन्न
१. क का पाठ : न्तैक्येन ।
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