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________________ सातवाँ स्तबक . १६९ तस्यैव तु तथाभावे तदेव हि यतस्तथा । भवत्यतो न दोषो नः कश्चिदप्युपपद्यते ॥५२९॥ जब यह बात संभव मान ली गई कि एक वस्तु वही वस्तु बनी रहते हुए कोई नया रूप धारण करती है तब यह बात भी संभव बन गई कि कारण ही कार्य का रूप धारण करता है, और ऐसी दशा में हमारे सिद्धान्त में कोई दोष नहीं । टिप्पणी-हरिभद्र का आशय यह है कि किसी वस्तु के द्रव्यात्मक पहलू को उस वस्तु का उपादान कारण मानकर तथा उस वस्तु के पर्यायात्मक पहलू को उक्त उपादानकारण का कार्य मानकर हम कह सकते हैं कि यहाँ कारण ने ही कार्यरूप धारण किया है । इत्थमालोचनं चेदमन्वयव्यतिरेकवत् । वस्तुनस्तत्स्वभावत्वात् तथाभावप्रसाधकम् ॥५३०॥ उक्त प्रकार का ऊहापोह-जो (ज्ञान होने के नाते) स्वयं नाश तथा स्थिरता दोनों से सम्पन्न है—सिद्ध करता है कि वस्तुएँ एक बनी रहती हुई रूपरूपान्तर धारण किया करती हैं और वह इसलिए कि वे नाश तथा स्थिरता दोनों धर्मों से सम्पन्न हैं । न च भेदोऽपि बाधामैं तस्यानेकान्तवादिनः । जात्यन्तरात्मकं वस्तु नित्यानित्यं यतो मतम् ॥५३१॥ एक वस्तु का दूसरे क्षण में पहले क्षण की अपेक्षा भिन्न हो जाना भी अनेकान्तवादी के लिए कोई कठिनाई उत्पन्न नहीं करता और वह इसलिए कि उसके मतानुसार प्रत्येक वस्तु 'अनित्यता (नाश) तथा नित्यता (स्थिरता) दोनों का साथ रहना' इस एक विलक्षण धर्म से सम्पन्न है । प्रत्यभिज्ञाबलाच्चैतदित्थं समवसीयते । इयं च लोकसिद्धैव तदेवेदमिति क्षितौ ॥५३२॥ यह बात कि एक वस्तु नाश तथा स्थिरता दोनों धर्मों से एक साथ सम्पन्न है प्रत्यभिज्ञा की सहायता से भी सिद्ध होती है, जबकि 'यह वही है' ऐसी ज्ञानरूप प्रत्यभिज्ञा दुनियाँ में सभी लोगों की सुपरिचित है ही । न युज्यते च सन्यायाहते तत्परिणामिताम् । कालादिभेदतो वस्त्वभेदतश्च तथागतेः ॥५३३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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