________________
१६८
शास्त्रवार्तासमुच्चय
उत्तर है :
टिप्पणीप्रस्तुत वादी के कहने का आशय यह है कि किसी वस्तु में यदि एक भी धर्म नया उत्पन्न हो जाय तो मानना चाहिए कि वह वस्तु नष्ट हो गई तथा एक नई वस्तु का जन्म हो गया । और यह जैन भी मानता ही है कि प्रत्येक वस्तु में प्रतिक्षण कोई न कोई नया धर्म उत्पन्न होता है ।।
तस्येति योगसामर्थ्याद् भेद एवेति बाधितम् ।।
अभिन्नदेशस्तस्येति यत् तद्व्याप्त्या तथोच्यते ॥५२६॥
प्रस्तुत वादी के शब्दों के अर्थों पर विचार करने से ही स्पष्ट हो जाता है कि उसका कथन अन्तर्विरोधपूर्ण है; क्योंकि यहाँ कहा जा रहा है कि जिस वस्तु का कुछ भाग नष्ट हो गया होता है वह पहले की अपेक्षा भिन्न ही हो जाती है, लेकिन एक वस्तु की 'वही वस्तु' मानते हुए उसे पहले से सर्वथा भिन्न कैसे कहा जा सकता है ? सचाई यह है कि एक वस्तु के स्थितिप्रदेश में उत्पन्न होने वाली तथा उस वस्तु के स्वभाव में साझीदार होने वाली ही एक दूसरी वस्तु के संबंध में कहा जाता है कि वह उस पहली वस्तु के भागतः नष्ट होने पर अस्तित्व में आई है ।
अतस्तभेद एवेति प्रतीतिविमुखं वचः । तस्यैव च तथाभावात् तन्निवृत्तीतरात्मकम् ॥५२७॥
अतः उक्त प्रकार से किसी वस्तु के सम्बन्ध में यह कहना कि भागतः नष्ट होने के फलस्वरूप वह पहले की अपेक्षा सर्वथा भिन्न हो जाती है एक अनुभवविरुद्ध बात हैं, क्योंकि होता यह है कि यह वस्तु वही वस्तु बनी रहते हुए भी एक नए रूप को धारण करने के फलस्वरूप नाश तथा स्थिरता दोनों धर्मों वाली मानी जाती है ।
नानुवृत्तिनिवृत्तिभ्यां विना यदुपपद्यते ।
तस्यैव हि तथाभावः सूक्ष्मबुद्ध्या विचिन्त्यताम् ॥५२८॥
सचमुच एक वस्तु के सम्बन्ध में यह कहना कि वह वही वस्तु बनी रहते हए कोई नया रूप धारण करती है तबतक युक्तिसंगत नहीं जबतक यह न माना जाए कि यह वस्तु स्थिरता तथा नाश दोनों से सम्पन्न है, इस सचाई पर सूक्ष्म बुद्धि से विचार किया जाना चाहिए ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org