SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 194
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सातवाँ स्तबक १६३ साथ रहना' इस शब्दावली का अर्थ करना असंभव हो जाएगा । टिप्पणी-हरिभद्र का आशय यह है कि एक वस्तु का भावरूप पहलू तथा उसका अभावरूप पहलू परस्पर भिन्न भी हैं तथा वे अनिवार्यतः साथ साथ भी रहते हैं। अन्योन्यमिति यद् भेदं व्याप्तिश्चाह विपर्ययम् । . भेदाभेदे द्वयोस्तस्मादन्योन्यव्याप्तिसंभवः ॥५०९॥ __उक्त धर्मों के संबन्ध में 'एक दूसरे' इस शब्द का प्रयोग सिद्ध करता है कि वे आपस में भिन्न हैं तथा उनके संबन्ध में यह कहना कि वे 'अनिवार्यतः साथ रहते हैं' सूचित करता है कि वे आपस में अभिन्न हैं । ऐसी दशा में इन धर्मों का आपस में भिन्न एवं अभिन्न दोनों स्वभावों वाला मानने पर ही उनके संबन्ध में यह कहना सम्भव होना चाहिए कि वे अनिवार्यतः एक दूसरे के साथ रहा करते हैं । एवं न्यायाविरुद्धेऽस्मिन् विरोधोद्भावनं नृणाम् । व्यसनं धीजडत्वं' वा प्रकाशयति केवलम् ॥५१०॥ इस प्रकार जब प्रस्तुत धर्मो को भेद तथा अभेद दोनों स्वभावों वाला मानना युक्तिविरुद्ध नहीं तब लोगों का (अर्थात् हमारे प्रतिद्वन्द्वियों का) हमारी मान्यता में अन्तविरोध दिखलाना या तो उनकी ईर्ष्यालुताभाव का द्योतक है या उनकी बुद्धिकी मूढता मात्र का । न्यायात् खलु विरोध यः स विरोध इहोच्यते । यद्वदेकान्तभेदादौ तयोरेवाप्रसिद्धितः ॥५११॥ इस सम्बन्ध मे अन्तर्विरोधपूर्ण मान्यता वही कहलाती है जिसका अन्तविरोध युक्तिसिद्ध हो; इस प्रकार की मान्यता का दृष्टान्त है प्रस्तुत धर्मों को आपस में सर्वथा भिन्न आदि (अर्थात् सर्वथा भिन्न अथवा सर्वथा अभिन्न) मानने के सिद्धान्त, और वह इसलिए कि उन सिद्धान्तों को स्वीकार करने पर यह सिद्ध करना सम्भव नहीं होता कि एक वस्तु में प्रस्तुत दोनों धर्म (अर्थात् स्थिरता एवं विनाश) एक साथ कैसे रहते हैं। १. ख का पाठ : वा जडत्वं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy