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शास्त्रवार्तासमुच्चय मृद्रव्यं यन्न पिण्डादिधर्मान्तरविवर्जितम् । तद्वा तेन विनिर्मुक्तं केवलं गम्यते क्वचित् ॥५१२॥
उदाहरण के लिए, मिट्टी द्रव्य का अनुभव पिण्ड आदि दूसरे धर्मों (पिण्डपर्याय आदि धर्मों) से मुक्त रूप में हम कहीं भी नहीं करते और नहीं हम पिण्ड आदि धर्मों का अनुभव मिट्टी द्रव्य से मुक्त रूप में कहीं भी करते हैं ।
ततोऽसत् तत् तथा न्यायादेकं चोभयसिद्धितः ।
अन्यत्रातो विरोधस्तदभावापत्तिलक्षणः ॥५१३॥
अतएव पिण्ड आदि धर्मों से मुक्त मिट्टी द्रव्य तथा मिट्टी द्रव्य से मुक्त पिण्ड आदि धर्म सत्ताशून्य है । इसी प्रकार, सामान्यतः द्रव्य तथा पर्याय इन दोनों में से किसी एक को ही सत्ताशील मानना युक्तिविरुद्ध है और वह इसलिए कि इन दोनों ही की सत्ताशीलता युक्तिसिद्ध है; अन्यथा (अर्थात् यदि द्रव्य तथा पर्याय को सर्वथा परस्पर भिन्न अथवा परस्पर अभिन्न माना जाएगा) तो इसी कारण से (अर्थात् इस कारण से कि हमें द्रव्यों तथा पर्यायों का उक्त रूप में अनुभव नहीं होता) हमें यह असंगत बात मानने पर बाध्य होना पड़ेगा कि वस्तुओं में द्रव्यपर्याय भाव ही नहीं पाया जाता ।
जात्यन्तरात्मके चास्मिन्नानवस्थादिदूषणम् ।। नियतत्वाद् विविक्तस्य भेदादेश्चाप्यसंभवात् ॥५१४॥
इस प्रकार भेद एवं अभेद का एक विलक्षण प्रकार से साथ रहना संभव मानने पर अनवस्था आदि दोषों के लिए अवकाश नहीं रह जाता और वह इसलिए कि वस्तुओं का ऐसा ही स्वरूप नियत है (अर्थात् इसलिए कि वस्तुओं के स्वरूप का नियमन भेद एवं अभेद दोनों मिलकर करते हैं) । वैसा मानने पर इन दोषों के लिए अवकाश इसलिए भी नहीं कि भेद आदि का (अर्थात् भेद अथवा अभेद का) अकेले कहीं पाया जाना संभव नहीं ।
टिप्पणी-'अनवस्था आदि दोषों' से हरिभद्र का आशय उन आपत्तियों से है जो जैनविरोधी दार्शनिक अनेकान्तवाद के विरुद्ध उठाया करते थे । उदाहरण के लिये, अनवस्था दोष निम्नलिखित प्रकार से उठता है : एक वस्तु को जिन
१. क का पाठ : पिण्डादि धर्मा । २. क का पाठ : यद् वा ।
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