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युवैव न च वृद्धोऽपि नान्यार्थं चेष्टनं च तत् । अन्वयादिमयं वस्तु तदभावोऽन्यथा भवेत् ॥५०६॥
एक युवा व्यक्ति बचपन में किए गए अपने कामों पर लज्जित होता है । यद्यपि वह अब बच्चा नहीं, और ठीक ये ही काम किसी दूसरे युवा व्यक्ति को लज्जित नहीं करते ( क्योंकि ये इस दूसरे युवा व्यक्ति के बचपन में किए गए काम नहीं) । इसी प्रकार एक युवा व्यक्ति अपनी वृद्धावस्था के सुविधार्थ कुछ काम करता है यद्यपि वह युवा ही वृद्ध नहीं और नहीं कोई एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के सुविधार्थ कुछ काम करता है । अतः यह सिद्ध हो गया कि एक वस्तु अन्वय आदि ( अर्थात् 'अन्वय एवं व्यतिरेक' 'स्थिरता एवं विनाश' ) स्वभावों वाली है, वरना इस वस्तु का अस्तित्व ही संभव न होगा ।
शास्त्रवार्त्तासमुच्चय
टिप्पणी- हरिभद्र का आशय यह है कि जब एक व्यक्ति की बाल्यावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था को एक दूसरे व्यक्ति की बाल्यावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था से पृथक् रूप में देखना संभव है तो इसका अर्थ यह हुआ कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी बाल्यावस्था आदि के बीच किसी न किसी अर्थ में एक भी बना रहता है ।
अन्वयो व्यतिरेकश्च द्रव्यपर्यायसंज्ञितौ । अन्योन्यव्याप्तितो भेदाभेदवृत्त्यैव वस्तु तौ ॥५०७ ॥
नान्योन्यव्याप्तिरेकान्तभेदेऽभेदे च युज्यते । अतिप्रसंगादैक्याच्च शब्दार्थानुपपत्तितः ॥५०८ ॥
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इस प्रकार अन्वय (स्थिरता) एवं व्यतिरेक (नाश) जिन्हें क्रमशः 'द्रव्य' एवं 'पर्याय' भी कहा जाता है अनिवार्यतः एक दूसरे के साथ रहते हुए ही वस्तुस्वरूप का निर्माण करते हैं, और इस वस्तु में रहते हुए वे (एक विलक्षण प्रकार से ) परस्पर भिन्न तथा परस्पर अभिन्न दोनों हैं।
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जो दो धर्म एक दूसरे से अत्यन्त भिन्न अथवा अत्यन्त अभिन्न है उनके संबन्ध में यह बात युक्तिसंगत नहीं कि वे अनिवार्यतः एक दूसरे के साथ रहते हैं, क्योंकि ये दो धर्म आपस में अत्यन्त भिन्न हैं तो उन्हें एक दूसरे का अनिवार्य साथी मानना मनमानी करना होगा, और यदि वे आपस में अत्यन्त अभिन्न हैं तब वे एक ही धर्म हो गए (न कि दो धर्म रहे) । दूसरे, उक्त धर्मों को आपस में अत्यन्त भिन्न अथवा अत्यन्त अभिन्न मानने पर 'अनिवार्यतः एक दूसरे के
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