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सातवाँ स्तबक के उद्देश्य से हम इस संबन्ध में कुछ अतिरिक्त बातें कहने जा रहे हैं ।
संसारी चेत् स एवेति कथं मुक्तस्य संभवः ।
मुक्तोऽपि चेत् स एवेति व्यपदेशोऽनिबन्धनः ॥५०२॥
यदि एक संसारी आत्मा संसारी ही है तब कोई आत्मा मुक्त कैसे हो सकती है ? और यदि एक मुक्त आत्मा मुक्त ही है तो उसे मुक्त कहने के पीछे कोई कारण नहीं ।
संसाराद् विप्रमुक्तो यन्मुक्त इत्यभिधीयते ।
नैतत्तस्यैव तद्भावमन्तरेणोपपद्यते ॥५०३॥
क्योंकि संसार से मुक्त हुई आत्मा को ही मुक्त कहा जाता है और इस कथन की संगति यह माने बिना नहीं बैठ सकती कि एक संसारी आत्मा ही मुक्त रूप धारण करती है।
तस्यैव च तथाभावे तन्निवृत्तीतरात्मकम् । द्रव्यपर्यायवद् वस्तु बलादेव प्रसिद्ध्यति ॥५०४॥
और यदि यह सच है कि एक संसारी आत्मा ही अन्त में जाकर मुक्त बन जाया करती है तो बलपूर्वक यह बात सिद्ध हो गई कि प्रत्येक वस्तु विनाशी एवं अविनाशी इन दोनों रूपों वाली ती द्रव्य एवं पर्याय इन दोनों रूपों वाली है ।
टिप्पणी—जैनदर्शन की पारिभाषिक शब्दावली में 'द्रव्य' एक वस्तु के अविनाशी पहलू का नाम है तथा 'पर्याय' इस वस्तु के विनाशी पहलू का । गहरी दृष्टि से देखा जाने पर चेतन जीवों तथा भौतिक परमाणुओं को ही द्रव्य कहा जाना चाहिए तथा इनमें से प्रत्येक द्रव्य की क्षण प्रतिक्षण बदलने वाली अवस्थाओं को उस द्रव्य के पर्याय । लेकिन व्यवहार में दैनंदिन जीवन की स्थूल वस्तुओं का वर्णन भी द्रव्यपर्याय की भाषा में किया जाता है । उदाहरण के लिए, जब सोने का घड़ा तोड़कर मुकुट बनाया जाता है तो कहा जाता है कि यहाँ 'सोना-द्रव्य' में 'घड़ा-पर्याय' का नाश होकर 'मुकुट-पर्याय' का जन्म हो गया, या जब दूध जमकर दही बन जाता है तो कहा जाता है कि यहाँ 'गोरसद्रव्य' में 'दूध-पर्याय का नाश होकर 'दही-पर्याय' का जन्म हो गया ।
लज्जते बाल्यचरितैर्बाल एव न चापि यत् । युवा न लज्जते चान्यस्तैरायत्यैव चेष्टते ॥५०५॥
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