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________________ सातवाँ स्तबक १५३ व्यक्ति को सोने के घड़े की आवश्यकता हो वह शोक में पड़ जाए, जिसे मुकुट की आवश्यकता हो वह प्रसन्न हो जाए, तथा जिसे सोने की आवश्यकता हो वह अपनी मन:स्थिति को पूर्ववत् बनाए रखे। टिप्पणी-हरिभद्र का आशय यह है कि जब एक ही घटना को 'घड़े का नाश' 'मुकुट की उत्पत्ति' तथा 'सोने का ज्यों का त्यों बने रहना' इन तीन रूपों में देखा जा सकता है तब यही मानना चाहिए कि जगत् की प्रत्येक वस्तु उत्पत्ति, नाश तथा स्थिरता इन तीन रूपोंवाली है।। पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिव्रतः । अगोरसवतो नोभे तस्मात् तत्त्वं त्रयात्मकम् ॥४७९॥ जिसने दूध पर रहने का व्रत लिया है वह दही नहीं खाता, जिसने दही पर रहने का व्रत लिया है वह दूध नहीं पीता, और जिसने गोरस न लेने का व्रत लिया है वह न दूध पीता है न दही खाता है । इससे सिद्ध होता है कि एक वस्तु का तात्त्विक स्वरूप तीन प्रकार का है । टिप्पणी-हरिभद्र का आशय यह है कि एक ही घटना 'दूध का नाश, 'दही की उत्पत्ति' तथा 'गोरस का ज्यों का त्यों बने रहना' इन तीन रूपों में देखी जा सकती है । और इससे भी निष्कर्ष यही निकलता है कि जगत् की प्रत्येक वस्तु उत्पत्ति, नाश तथा स्थिरता इन तीनों रूपोंवाली है । अत्राप्यभिदधत्यन्ये विरुद्धं हि मिथस्त्रयम् । एकत्रैवैकदा नैतद् घटां प्राञ्चति जातुचिद् ॥४८०॥ इस संबन्ध में भी कुछ दूसरे वादियों का कहना है कि उक्त तीन धर्मों का (अर्थात् उत्पत्ति, विनाश एवं स्थिरता का) एक साथ रहना परस्पर विरोधी है—जिसके फलस्वरूप स्थिति यह बनती है कि ये तीन धर्म एक ही स्थान पर एक ही समय में कभी नहीं पाए जाते । उत्पादोऽभूतभवनं विनाशस्तद्विपर्ययः । ध्रौव्यं चोभयशून्यं यदेकदैकत्र तत् कथम् ॥४८१॥ उत्पत्ति का अर्थ है अस्तित्व में न रही वस्तु का अस्तित्व में आना, विनाश का अर्थ है इसका उलटा (अर्थात् अस्तित्व में आई हुई वस्तु का अस्तित्व में न रहना), जबकि स्थिरता का अर्थ है उत्पत्ति तथा विनाश दोनों से शून्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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