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शास्त्रवार्तासमुच्चय होना; जब बात ऐसी है तब ये तीन धर्म एक ही में एक ही स्थान पर कैसे रह सकते हैं ?
शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यमुक्तं यच्चात्र साधनम् ।
तदप्यसाम्प्रतं यत् तद् वासनाहेतुकं मतम् ॥४८२॥
प्रस्तुत मत के समर्थन में जो कहा गया कि एक ही घटना के फलस्वरूप एक व्यक्ति के मन में शोक उत्पन्न होता है, दूसरे के मन में प्रसन्नता तथा तीसरे की मन:स्थिति पूर्ववत् बनी रहती है, वह अनुचित है; क्योंकि एक व्यक्ति के मन में शोक आदि उत्पन्न होने का कारण तो इस मन की वासनाएँ हैं।
किञ्च स्याद्वादिनो नैव युज्यते निश्चयः क्वचित् ।
स्वतन्त्रापेक्षया तस्य न मानं मानमेव यत् ॥४८३॥
दूसरे, स्याद्वाद का सिद्धान्त मानने वाले एक व्यक्ति के लिए (जैसा व्यक्ति कि प्रस्तुत वादी है) किसी भी मान्यता का प्रतिपादन निश्चयपूर्वक करना युक्तिसंगत नहीं क्योंकि ऐसे व्यक्ति के परंपरागत विश्वास का तकाजा तो यह है कि ठीक उसी वस्तु के संबंध में जिसे वह प्रमाण कह रहा हो वह यह भी कहे कि वह प्रमाण नहीं ।
टिप्पणी-जैन दर्शन की मान्यतानुसार एक वस्तु भावरूप तथा अभावरूप दोनों हुआ करती है; इस पर प्रस्तुत विरोधी की आपत्ति है कि तब तो जैन को चाहिए कि वह एक ही कथन को प्रामाणिक तथा अप्रामाणिक दोनों माने (और ऐसी दशा में कुछ भी सिद्ध-असिद्ध करना उसके लिए असंभव बन जाना चाहिए) । 'स्याद्वाद' शब्द का अर्थ है प्रत्येक कथन को सापेक्ष अर्थ में ही सत्य मानने का सिद्धान्त ।
संसार्यपि न संसारी मुक्तोऽपि न स एव हि । . तदतद्रूपभावेन सर्वमेवाव्यवस्थितम् ॥४८४॥
इसी प्रकार, उक्त व्यक्ति एक संसारी आत्मा के संबंध में यह भी कहेगा कि वह संसारी नहीं तथा एक मुक्त आत्मा के संबंध में यह भी कि वह मुक्त नहीं । ऐसी दशा में इस व्यक्ति के मतानुसार बात यह ठहरती है कि प्रत्येक वस्तु परस्परविरोधी स्वरूपोंवाली है और इसलिए किसी भी निश्चित स्वरूपवाली नहीं ।
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