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सातवाँ स्तबक
(१) जैनसम्मत नित्यानित्यत्ववाद का समर्थन ।
अन्ये त्वाहुरनाद्येव जीवाजीवात्मकं जगत् । ।
सदुत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं शास्त्रकृतश्रमाः ॥४७७॥
शास्त्रों का परिश्रमपूर्वक अध्ययन करनेवाले कुछ दूसरे वादियों ने जीवों तथा अजीवों के पूंजीभूत इस जगत् के संबन्ध में कहा है कि वह अनादि है तथा वास्तविक अर्थ में उत्पत्ति, विनाश एवं स्थिरता से सम्पन्न है ।
टिप्पणी प्रस्तुत स्तबक में हरिभद्र ने जैन-परंपरा की दार्शनिक मान्यताओं का प्रतिपादन समर्थनपुरःसर किया हैं । यह एक जैन मान्यता है कि जगत् के चेतन भाग का निर्माण अनंतसंख्यक आत्माएँ करती हैं (जिनका सामान्य पारिभाषिक नाम 'जीव' है) तथा जड़ भाग का निर्माण अनन्तसंख्यक परमाणु, करते हैं (जिनका सामान्य पारिभाषिक नाम 'अजीव' है)। परमाणुओं के संबन्ध में यह भी माना गया है कि वे आपस में जुड़-मिल कर जगत् की इन उन भौतिक वस्तुओं को जन्म देते हैं जबकि जीवों के संबंध में यही माना गया है कि वे एक दूसरे से सर्वथा पृथक् रहते हैं । अन्तिम उल्लेखनीय बात यह है कि प्रत्येक जीव तथा प्रत्येक परमाणु एक नित्य वस्तु होते हुए भी प्रतिक्षण रूपरूपान्तर धारण करता रहता है । प्रस्तुत कारिका में हरिभद्र ने इन्हीं सब मान्यताओं को ध्यान में रखा है।
घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् ।
शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ॥४७८॥
जंब सोने का घड़ा नष्ट करके मुकुट बनाया जाता है तब सोना पूर्ववत् स्थिति में बना रहता है, और ऐसी दशा में यह एक सकारण बात है कि जिस
१. प्रस्तुत 'अजीव' के अन्तर्गत परमाणुओं के अतिरिक्त आकाश, धर्म (=गति संभव बनाने
वाला तत्त्वविशेष), अधर्म (=स्थिति संभव बनानेवाला तत्त्वविशेष), तथा काल ये चार अन्य जड़ तत्त्व भी आते हैं, लेकिन प्रस्तुत प्रसंग में हम उनकी उपेक्षा कर रहे हैं।
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