SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 182
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छठा स्तबक १५१ कहा जा सकता है कि उक्तरूप से शिक्षित किया जाने वाला व्यक्ति भी अशून्य रूप है, लेकिन तब तो प्रस्तुत वादी के न चाहने पर भी अनेकों वस्तुएँ अशून्य रूप सिद्ध हो गई और वह इसलिए कि प्रश्न करनेवाले (अर्थात् शिक्षार्थी) व्यक्तियों की संख्या अनेक हो सकती है । यावतामस्ति तन्मानं प्रतिपाद्यास्तथा च ये । सन्ति ते सर्व एवेति प्रभूतानामशून्यता ॥४७५॥ . बात यह है कि वे सभी व्यक्ति जो शून्यतासमर्थक प्रमाण को स्वीकार करके चलते हैं तथा वे सभी व्यक्ति भी जिन्हें शून्यताविषयक शिक्षा दी जा रही है अस्तित्वशील ही होने चाहिए । अतएव हमने कहा कि अब तो प्रस्तुतवादी के मतानुसार अनेकों वस्तुएँ अशून्य रूप सिद्ध हो गई । एवं च शून्यवादोऽपि तद्विनेयानुगुण्यतः । अभिप्रायत इत्युक्तो लक्ष्यते तत्त्ववेदिना ॥४७६॥ इस प्रकार शून्यवाद के सम्बन्ध में भी वस्तुस्थिति यही प्रतीत होती है कि तत्त्वज्ञ बुद्ध ने उसका प्रतिपादन किन्हीं शिष्य विशेषों की योग्यता को ध्यान में रखकर किसी अभिप्राय विशेष से किया है । टिप्पणी-प्रस्तुत कारिका में हरिभद्र यह संभावना प्रकट कर रहे हैं कि कोई अर्थविशेष पहनाया जाने पर शून्यवाद भी एक स्वीकार करने योग्य वाद बन जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy