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________________ १५० शास्त्रवार्तासमुच्चय वह (भ्रान्त समझ भी) आनन्द आदि का कारण उसी प्रकार बनती है जैसे कि एक कुमारी का यह स्वप्न देखना कि उसे पुत्रजन्म हुआ है (अथवा यह कि उसका पुत्र मर गया है) । अत्राप्यभिदधत्यन्ये किमित्थं तत्त्वसाधनम् । प्रमाणं विद्यते किञ्चिदाहोस्विच्छून्यमेव हि ॥४७०॥ इस सम्बन्ध में भी कुछ दूसरे वादियों का पूछना है कि उक्त सिद्धान्त के (अर्थात् शून्यवाद के) समर्थन में कोई प्रमाण विद्यमान है अथवा नहीं । शून्यं चेत् सुस्थितं तत्त्वमस्ति चेच्छून्यता कथम् । तस्यैव ननु सद्भावादिति सम्यग् विचिन्त्यताम् ॥४७१॥ यदि उक्त सिद्धान्त के समर्थ में कोई प्रमाण विद्यमान नहीं तब तो यह सिद्धान्त खूब रहा । और यदि इस सिद्धान्त के समर्थन में कोई प्रमाण विद्यमान है तब सब कुछ शून्य कैसे ? क्योंकि तब ,तो उक्त प्रमाण को ही एक वस्तुतः विद्यमान सत्ता मान लिया गया । इस वस्तुस्थिति पर भली भाँति विचार किया जाना चाहिए । प्रमाणमन्तरेणापि स्यादेवं तत्त्वसंस्थितिः । अन्यथा नेति सुव्यक्तमिदमीश्वरचेष्टितम् ॥४७२॥ यदि अपने पक्ष के समर्थन में किसी प्रमाण के न रहने पर भी कोई कहे जाए कि जगत् की वस्तुओं का स्वरूप अमुक प्रकार का है न कि अन्य किसी प्रकार का तो यह स्पष्ट ही एक धींगामुश्ती वाली बात हुई । . उक्तं विहाय मानं चेच्छून्यताऽन्यस्य वस्तुनः । शून्यत्वे प्रतिपाद्यस्य ननु व्यर्थः परिश्रमः ॥४७३॥ __कहा जा सकता है कि शून्यतासमर्थक प्रमाण से अतिरिक्त शेष सब कुछ शून्य रूप है, लेकिन तब तो प्रमाण की सहायता से शिक्षित किया जाने वाला व्यक्ति भी शून्य रूप हुआ और उसकी शिक्षा पर व्यय किया गया श्रम व्यर्थ गया । तस्याप्यशून्यतायां च प्राश्निकानां बहुत्वतः ।। प्रभूताऽशून्यतापत्तिरनिष्टा संप्रसज्यते ॥४७४॥ १. क का पाठ : प्रभूता शून्य' । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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