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________________ छठा स्तबक १४७ मेरे ही समान क्षणिक होनी चाहिए' इस प्रकार के अनुमान द्वारा जानता है, क्योंकि यह संभव है कि (जहाँ तक क्षणिकता अक्षणिकता का प्रश्न है) इस ज्ञान का स्वरूप इस वस्तु के स्वरूप से भिन्न हो । दूसरे, उक्त ज्ञान का अपना स्वरूप उक्त वस्तु के स्वरूप का अनुमान कराने में समर्थ हेतु नहीं और वह इसलिए कि उक्त ज्ञान का अपना स्वरूप उक्त वस्तु के स्वरूप का स्वभाव आदि (अर्थात् स्वभाव अथवा कार्य) नहीं (जबकि प्रस्तुत वादी के मतानुसार एक अनुमान में हेतु को साध्य का स्वभाव अथवा कार्य होना चाहिए) । नित्यस्यार्थक्रियाऽयोगोऽप्येवं युक्त्या न गम्यते । सर्वमेवाविशेषेण विज्ञानं क्षणिकं यतः ॥४६२॥ प्रस्तुत वादी द्वारा एक नित्य वस्तु का अर्थक्रिया में असमर्थ घोषित किया जाना इसलिए भी युक्तिसंगत नहीं कि उसके मतानुसार सभी ज्ञान निरपवाद रूप से क्षणिक (अतः अनेक क्षणस्थायितारूप नित्यता को ग्रहण करने में असमर्थ) हैं। टिप्पणी-संभवतः प्रस्तुत कारिका में हरिभद्र का आशय यह है कि 'वस्तुएँ तत्त्वतः इस स्वरूपवाली हैं तथा इस स्वरूपवाली नहीं' इस प्रकार का ऊहापोहात्मक ज्ञान अनिवार्यतः अक्षणिक होना चाहिए, लेकिन यशोविजयजी इस कारिका का आशय यही समझते प्रतीत होते हैं कि एक क्षणिक ज्ञान अक्षणिकता को अपना खंडनविषय भी नहीं बना सकता । तथा चित्रस्वभावत्वान्न चार्थस्य न युज्यते । अर्थक्रिया ननु न्यायात् क्रमाक्रमविभाविनी ॥४६३॥ क्योंकि एक वस्तु उक्त प्रकार से रूपरूपान्तरण धारण करनेवाली हुआ करती है इसलिए निश्चय ही उसमें क्रमिक तथा एककालिक इन दो में से एक भी प्रकार की अर्थक्रिया का उत्पन्न होना अयुक्तिसंगत नहीं। टिप्पणी-क्षणिकवादी का कहना है कि एक अक्षणिक वस्तु किन्हीं कार्यों को न एक साथ उत्पन्न कर सकती है न क्रमशः, एक साथ तो इसलिए नहीं कि तब फिर इन कार्यों को उत्पन्न करने के बाद वह वस्तु अस्तित्व में ही क्यों बनी रहे और क्रमशः इसलिए नहीं कि जब उक्त वस्तु उक्त सभी कार्यों को उत्पन्न करने में समर्थ है तब वह उन्हें क्रमशः क्यों उत्पन्न करे, इस पर हरिभद्र का उत्तर है कि जब यह बात सिद्ध हो गई कि जगत् की वस्तुएँ क्षणिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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