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शास्त्रवार्तासमुच्चय
नहीं तब यह भी सिद्ध हो ही गया कि अक्षणिक वस्तुएँ भी किन्हीं कार्यों को एक साथ उत्पन्न कर सकती है तथा किन्हीं को क्रमशः । (५) क्षणिकवाद तथा विज्ञानवाद के प्रतिपादन का एक संभव
आशयविशेष ।
अन्ये त्वभिदधत्येवमेतदास्थानिवृत्तये । क्षणिकं सर्वमेवेति बुद्धेनोक्तं न तत्त्वतः ॥४६४॥
कुछ दूसरे वादियों का कहना है कि यदि बुद्ध ने सब वस्तुओं को क्षणिक कहा तो इसलिए कि लोगों की इन वस्तुओं के प्रति चाह नष्ट हो न कि इसलिए कि ये वस्तुएँ सचमुच वैसी (अर्थात् एक क्षणस्थायी) हैं ।
टिप्पणी-प्रस्तुत तथा आगामी दो कारिकाओं में हरिभद्र बतला रहे हैं कि क्षणिकवाद तथा विज्ञानवाद भी क्या अर्थ पहनाए जाने पर स्वीकार किए जाने योग्य सिद्धान्त बन जाते हैं। -- विज्ञानमात्रमप्येवं बाह्यासंगनिवृत्तये ।
विनेयान् कांश्चिदाश्रित्य यद्वा तद्देशनाऽर्हतः ॥४६५॥ ___ इसी प्रकार, बुद्ध ने विज्ञान को एकमात्र वास्तविक सत्ता इसलिए कहा कि लोगों की बाह्य वस्तुओं में आसक्ति नष्ट हो, या हम कह सकते हैं कि बुद्ध द्वारा यह उपदेश किन्हीं विशेष योग्यता से सम्पन्न शिष्यों को ध्यान में रखकर दिया गया है।
न चैतदपि न न्याय्यं यतो बुद्धो महामुनिः । - सुवैद्यवद् विना कार्यं द्रव्यासत्यं न भाषते ॥४६६॥
___ उक्त वादियों का यह सब कहना भी अयुक्तिसंगत नहीं, और वह इसलिए कि महामुनि बुद्ध बनावटी झूठ भी बिना कारण उसी प्रकार नहीं बोलते जैसे कि एक अच्छा वैद्य नहीं बोलता ।
टिप्पणी-हरिभद्र के दृष्टान्त का आशय यह है कि जिस प्रकार एक अच्छा वैद्य बनावटी झूठ भी अपने रोगियों के हित को दृष्टि में रखकर ही बोलता है उसी प्रकार भगवान् बुद्ध ने मिथ्या प्रतीत होने वाली शिक्षाएँ भी अपने शिष्यों के हित को दृष्टि में रखकर ही दी है ।
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