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ग्रहणेऽपि यदा ज्ञानमपैत्युत्पत्त्यनन्तरम् । तदा तत् तस्य जानाति क्षणिकत्वं कथं ननुं ॥४५९ ॥
शास्त्रवार्त्तासमुच्चय
और यदि मान भी लिया जाय कि एक ज्ञान का किसी वस्तु को अपना विषय बनाना संभव है तो भी जब यह ज्ञान उत्पन्न होते ही नष्ट हो जाता है। तब वह इस वस्तु की क्षणिकता को अपना विषय कैसे बना सकता है ?
टिप्पणी— हरिभद्र का आशय यह है कि एक ज्ञान पहले अपना विषय बनी वस्तु के स्वरूप की जानकारी करेगा और उसके बाद इस वस्तु की क्षणिकता की, लेकिन यदि यह ज्ञान क्षणिक है तो वह इन दोनों कामों को नहीं कर सकता ।
तस्यैव तत्स्वभावत्वात् स्वात्मनैव तदुद्भवात् । यथा नीलादि ताद्रूप्यान्नैतन्मिथ्यात्वसंशयात् ॥४६०॥
उत्तर दिया जा सकता है कि क्योंकि एक ज्ञान की विषयभूत वस्तु ही क्षणिक स्वभाववाली है और क्योंकि इस वस्तु से ही इस ज्ञान का जन्म हुआ है यह ज्ञान इस वस्तु की क्षणिकता को अपना विषय बना पाता है— उसी प्रकार जैसे नीली वस्तु आदि के सम्मान आकारवाला होने के कारण यह ज्ञान नीली वस्तु आदि को अपना विषय बना पाता है; लेकिन इस पर हमारा उत्तर है कि बात ऐसी नहीं क्योंकि तब तो इस क्षणिकताविषयक ज्ञान के मिथ्या होने का संशय बना रहना चाहिए ।
टिप्पणी — प्रस्तुतवादी का कहना है कि एक ज्ञान जिस प्रकार अपना विषय बनी वस्तु के स्वरूप की जानकारी करता है उसी प्रकार वह इस वस्तु की क्षणिकता की भी जानकारी कर सकता है; इस पर हरिभद्र का उत्तर है। कि तब तो जिस प्रकार यह संभव है कि कोई ज्ञान अपना विषय बनी वस्तु के स्वरूप के संबंध में अयथार्थ जानकारी कराये उसी प्रकार यह भी संभव होना चाहिए कि वह इस वस्तु की क्षणिकता के संबंध में अयथार्थ जानकारी
कराए ।
न चापि स्वानुमानेन धर्मभेदस्य संभवात् । लिङ्गधर्मातिपाताच्च तत्स्वभावाद्ययोगतः ॥ ४६१॥
न ही एक ज्ञान अपनी विषयभूत वस्तु की क्षणिकता को 'यह वस्तु
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