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छठा स्तबक
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उसका विषय 'क का ख से भेद' नहीं हो सकता, इसपर हरिभद्र पूछते हैं कि तब जिस ज्ञान का विषय क है उसका विषय 'क का ख से सादृश्य' कैसे हो सकता है ।
तथागतेरभावे च वचस्तुच्छमिदं ननु । सदृशेनावरुद्धत्वात् तद्ग्रहाद् हि तदग्रहः ॥४५६॥
और जब एक वस्तु को किन्हीं दूसरी वस्तुओं से भिन्न रूप से देखना संभव नहीं तब यह कहना बेकार की बात है कि "ये दूसरी वस्तुएँ इस वस्तु के सदृश हैं तथा उन्होंने उत्पन्न होकर हमारे मार्ग में रुकावट डाल दी है, और वह इसलिए कि इन दूसरी वस्तुओं को देखने के फलस्वरूप हम यह नहीं देख पाते कि वह मूल वस्तु अपने अस्तित्व के प्रथम क्षण में ही नष्ट हो गई थी।"
भावे चास्या बलादेकमनेकग्रहणात्मकम् ।
अन्वयि ज्ञानमेष्टव्यं सर्वं तत् क्षणिकं कुतः ॥४५७॥
दूसरी ओर, एक वस्तु को किन्हीं दूसरी वस्तुओं से भिन्न रूप में देखना यदि संभव माना जाए तो बरबस यह मानलिया गया कि अनेक वस्तुओं को अपना विषय बनाने वाला एक स्थायी (अर्थात् अनेक क्षण स्थायी तथा रूप रूपान्तरणशील) ज्ञान संभव है, और ऐसी दशा में यह कहना कहाँ तक उचित है कि प्रत्येक वस्तु क्षणिक हुआ करती है ।
टिप्पणी-हरिभद्र का आशय यह है कि जिस ज्ञान का विषय 'क का ख से भेद' है वह अनेकक्षणस्थायी ही होना चाहिए (ताकि वह क की, ख की और फिर क के ख से भेद की जानकारी कर सके) ।
ज्ञानेन गृह्यते चार्थो न चापि परदर्शने ।।
तदभावे तु तद्भावात् कदाचिदपि तत्त्वतः ॥४५८॥
दूसरे, हमारे प्रस्तुत विरोधी की मान्यतानुसार कोई ज्ञान किसी वस्तु को सचमुच अपना विषय कभी बना ही नहीं सकता, और वह इसलिए कि इस मान्यतानुसार एक ज्ञान अस्तित्व में तब आता है जब उसकी विषयभूत वस्तु अस्तित्व खो चुकी होती है ।
१ क का पाठ : अन्वयिज्ञान ।
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