________________
१४४
शास्त्रवार्तासमुच्चय धोखे में डाल देती है; जैसी कि एक प्राचीन उक्ति है :
टिप्पणी—प्रस्तुत वादी का आशय यह है कि जिसे हम किसी एक वस्तु का अनेक क्षणों तक अस्तित्व में बने रहना कहते हैं वह वस्तुतः किन्हीं क्षणिक किन्तु परस्पर सदृश वस्तुओं का क्रमशः अस्तित्व में आना है, उसके मतानुसार इन अनेक वस्तुओं को एक वस्तु मान लेना एक भ्रान्ति है ।
अन्ते क्षयेक्षणादादौ क्षयोऽदृष्टोऽनुमीयते ।।
सदृशेनावरुद्धत्वात् तद्ग्रहाद् हि तदग्रहः ॥४५३॥
"एक वस्तु को अन्त में जाकर नष्ट होते देखकर हम अनुमान लगाते हैं कि यह वस्तु अपने अस्तित्व के प्रथम क्षण में ही नष्ट हो गई थी-यद्यपि इस वस्तु को उसके अस्तित्व के प्रथम क्षण में ही नष्ट होते हमने देखा नहीं। यहाँ होता यह है कि उक्त वस्तु के (जो अनिवार्यतः एकक्षणस्थायी है) सदृश वस्तुएँ उत्पन्न होकर हमारे मार्ग में रुकावट खड़ा कर देती हैं, क्योंकि इस सदृश वस्तुओं को देखने के फलस्वरूप हम यह नहीं देख पाते कि वह मूल वस्तु अपने अस्तित्व के प्रथम क्षण में ही नष्ट हो गई थी ।" ।
एतदप्यसदेवेति सदृशो भिन्न एव यत् । भेदाग्रहे कथं तस्य तत्स्वभावत्वतो ग्रहः ॥४५४॥
लेकिन इस पर हमारा उत्तर है कि यह सब कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि जो दो वस्तुएँ एक दूसरे के सदृश होती हैं वे एक दूसरे से भिन्न ही होती हैं और ऐसी दशा में एक वस्तु को एक दूसरी वस्तु से भिन्न रूप में देखे बिना हम उसे इस दूसरी वस्तु के सदृश रूप में कैसे देख सकते हैं ?
तदर्थनियतोऽसौ यद् भेदमन्याग्रहाद् हि तत् ।
न गृह्णातीति चेत् तुल्यः सोऽपरेण कुतो गतिः ॥४५५॥
कहा जा सकता है कि एक ज्ञान का विषय एक ही वस्तु हुआ करती है और ऐसी दशा में यह ज्ञान इस वस्तु के किसी अन्य वस्तु से भेद को अपना विषय इसलिए नहीं बना पाता कि यह अन्य वस्तु इस ज्ञान का विषय नहीं; लेकिन इस पर हम पूछते हैं कि तब यह ज्ञान वही कैसे जान पाता है कि उसकी विषयभूत वस्तु किसी अन्य वस्तु के सदृश है।
टिप्पणी प्रस्तुत वादी का कहना है कि जिस ज्ञान का विषय क है
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org