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________________ छठा स्तबक नित्येतरदतो न्यायात् तत्तथाभावतो हि तत् । प्रतीतिसचिवात् सम्यक् परिणामेन गम्यते ॥४५०॥ इस प्रकार अपनी रूपान्तरणशीलता के आधार पर तो एक वस्तु उन उन रूपों को धारण करने वाली अतः नित्य तथा अनित्य दोनों स्वभाव वाली भली भाँति सिद्ध होती है— और इस सिद्धि का उपकरण है अनुभव को साथ लेकर चलने वाला तर्क । ( ४ ) ' अन्ततोगामी नाश' से क्षणिकवाद की सिद्धि नहीं । अन्ते क्षयेक्षणं चाद्यक्षणक्षयप्रसाधनम् । तस्यैव तत्स्वभावत्वात् युज्यते न कदाचन ॥४५१॥ और प्रस्तुत वादी ने जो यह कहा कि एक वस्तु को अन्त में जाकर नष्ट होते देखकर हम अनुमान लगा सकते हैं कि यह वस्तु अपने अस्तित्व के प्रथम क्षण में ही नष्ट हो गई थी वह कभी युक्तिसंगत नहीं; यह ठीक इसलिए कि यह वस्तु अन्तमें जाकर नष्ट होती है ( न कि अपने अस्तित्व के प्रथम क्षण में) । १४३ टिप्पणी — प्रस्तुत कारिका में क्षणिकवाद की समर्थक एक चौथी युक्ति का खण्डन प्रारम्भ होता है । क्षणिकवादी का कहना है कि क्योंकि प्रत्येक वस्तु कभी न कभी नष्ट होती पाई जाती है और क्योंकि किसी वस्तु का नाश अकस्मात् नहीं हो सकता इसलिए हमें मानना चाहिए कि प्रत्येक वस्तु अपने जन्मकाल से ही प्रतिक्षण नष्ट हो रही थी; इस पर हरिभद्र का उत्तर है कि किसी वस्तु के संबन्ध में एक ओर यह कहना कि वह कभी न कभी (अथात् कुछ न कुछ समय अस्तित्व में बनी रहने के बाद) नष्ट होती है और दूसरी ओर यह कहना कि वह अपने जन्मकाल से ही प्रतिक्षण नष्ट हो रही थी एक बेतुकी बात है । आदौ क्षयस्वभावत्वे तत्रान्ते दर्शनं कथम् । तुल्यापरापरोत्पत्तिविप्रलम्भाद् यथोदितम् ॥४५२ ॥ यदि एक वस्तु का स्वभाव अपने अस्तित्व के प्रथम क्षण में ही नष्ट होने का है तो प्रश्न उठता है कि तब इस वस्तु का नाश अन्त में जाकर क्यों दीखता है ( उसके अस्तित्व के प्रथम क्षण में ही क्यों नहीं) । प्रस्तुत वादी उत्तर देगा कि यहाँ एक के बाद दूसरी लेकिन परस्पर सदृश वस्तुओं की उत्पत्ति हमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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