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शास्त्रवार्तासमुच्चय
चुकी है-उस स्थल पर जहाँ हरिभद्र ने क्षणिकवादी के इस मत का खंडन किया था कि 'एक भावरूप वस्तु अभावरूप वस्तु बन जाया करती है ।
क्षीरनाशश्च दध्येव यद् दृष्टं गोरसान्वितम् । __ न तु तैलाद्यतः सिद्ध परिणमोऽन्वयावहः ॥४४८॥
'दूध का नाश' वह दही ही कहलाता है जिसमें (दूध ही की भाँति) गोरसपना पाया जाता है; दूसरी ओर, तेल आदि को (जिनमें गोरसपना नहीं पाया जाता) 'दूध का नाश' नहीं कहा जाता । इससे सिद्ध हो गया कि एक वस्तु को रूप-रूपान्तरणशील मानने का अर्थ यह है कि वह वस्तु अपने रूप-रूपान्तरों के बीच एक भी बनी ही रहती है।
टिप्पणी-हरिभद्र का आशय यह है कि यदि क नष्ट होकर ख बन जाता है तो भी क तथा ख के बीच कुछ-न-कुछ स्वरूपसादृश्य होना ही चाहिए; उदाहरण के लिए, दूध नष्ट होकर दही बनता है लेकिन दूध तथा दही दोनों 'गोरस' कहलाते हैं (दूसरी ओर, क्योंकि दूध तथा तेल के बीच किसी प्रकार का स्वरूपसादृश्य नहीं इसीलिए दूध नष्ट होकर तेल कभी नहीं बनता) ।
नासत् सज्जायते जातु सच्चासत् सर्वथैव हि ।।
शक्त्यभावादतिव्याप्तेः सत्स्वभावत्वहानितः ॥४४९॥
कोई सर्वथा अस्तित्वशून्य वस्तु कभी अस्तित्ववान् नहीं बना करती और कोई अस्तित्ववान् वस्तु कभी सर्वथा अस्तित्वशून्य नहीं बना करती। इनमें से पहली बात तो इसलिए सच नहीं कि एक अस्तित्वशून्य वस्तु में किसी प्रकार की कार्यजनन शक्ति नहीं रहती और यदि किसी प्रकारविशेष की कार्यजननशक्ति उसमें मानी जा सकती है तो अन्य किसी भी प्रकार की कार्यजननशक्ति भी उसमें मानी ही जा सकेगी; उक्त दूसरी बात इसलिए सच नहीं कि तब तो मानना पड़ेगा कि एक अस्तित्वशील स्वभाव वाली वस्तु ने अपना स्वभाव खो
दिया।
टिप्पणी-प्रस्तुत दोनों प्रश्नों की चर्चा भी पहले हो ली है, क्योंकि हरिभद्र विस्तार से क्षणिकवादी के इस मत का भी खण्डन कर चुके कि 'एक अभावरूप वस्तु भावरूप बन जाती है' और इसका भी कि 'एक भावरूप अभावरूप बन जाती है ।
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