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________________ १४० शास्त्रवार्तासमुच्चय टिप्पणी-पिछली टिप्पणी की भाषा में, यदि ख अपने जन्म के पूर्व सर्वथा नास्तित्वशील है तो वह क के उपस्थित रहने पर भी उत्पन्न नहीं हो सकता, और यदि क ही ख के रूप में अस्तित्वशील बना है तो क क्षणिक नहीं स्थायी सिद्ध हुआ । भूतियैषां' क्रिया सोक्ता न चासौ युज्यते क्वचित् । कर्तृभोक्तृस्वभावत्वविरोधादिति चिन्त्यताम् ॥४४२॥ प्रस्तुतवादी के मतानुसार एक वस्तु के उत्पन्न होने का अर्थ है इस वस्तु का क्रिया करना, लेकिन उसे सोचना चाहिए कि उसका मत युक्तिसंगत नहीं और वह इसलिए कि उसका किसी चित्तक्षण को कर्ता तथा भोक्ता दोनों मानना अन्तर्विरोधपूर्ण होगा (-जिसका कारण यह है कि कर्तृत्व तथा भोक्तृत्व दो परस्पर भिन्न धर्म हैं)। टिप्पणी-हरिभद्र का आशय यह प्रतीत होता है कि क्योंकि क्षणिकवादी एक वस्तु को एक ही स्वभाव वाली मानता है अनेक स्वभावों वाली नहीं इसलिए उसके लिए यह मानना संभव नहीं कि कोई वस्तु क्रियाशील तथा भवनशील दोनों हैं-अथवा यह कि कोई चित्तक्षण कर्ता तथा भोक्ता दोनों हैं । न चातीतस्य सामर्थ्य तस्यामिति निदर्शितम् । ___ न चान्यो लौकिकः कश्चिच्छब्दार्थोऽत्रेत्ययुक्तिमत् ॥४४३॥ और यह हम दिखा ही चुके (कारिका ४४० में) कि एक भूतकालीन (= नष्ट हुई) वस्तु अर्थक्रिया को उत्पन्न करने में समर्थ नहीं हो सकती । न ही 'अर्थक्रिया' शब्द का कोई दूसरा लोकप्रसिद्ध अर्थ यहाँ ग्रहण किया जा सकता है-जिसका अर्थ यह हुआ कि प्रस्तुत वादी का मत अयुक्तिसंगत है । (३) 'रू प-रू पान्तरण' से क्षणिकवाद की सिद्धि नहीं । परिणामोऽपि नो हेतुः क्षणिकत्वप्रसाधने । सर्वदैवान्यथात्वेऽपि तथाभावोपलब्धितः ॥४४४॥ जगत् की वस्तुओं में दीख पड़ने वाला रूप-रूपान्तरण भी क्षणिकवाद की सिद्धि नहीं करता, क्योंकि सदा ही इन वस्तुओं में एक नए रूप की उत्पत्ति होते समय भी उनका एक पुराना रूप ज्यों का त्यों बना रहता है। १. क का पाठ : भूतिर्येषां । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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