________________
छठा स्तबक
१३१
'घड़े के अस्तित्व का अन्तिम क्षण', ग का अर्थ 'घड़े के टुकड़ों के अस्तित्व का प्रथम क्षण', क का अर्थ 'डण्डे के अस्तित्व का वह क्षण जो घड़े के अस्तित्व के अन्तिम क्षण के समकालीन था'।
न पुनः क्रियते किञ्चित् तेनास्य सहकारिणा ।
समानकालभावित्वात् तथा चोक्तमिदं तव ॥४१८॥
प्रस्तुत वादी की यह भी मान्यता है कि उस सहकारिकारण उक्त वस्तु में कछ नवीनता नहीं लाता और वह इसलिए कि यह सहकारिकारण इस वस्तु का समकालीन है । प्रस्तुत वादी के ही शब्दों में :
टिप्पणी-पूर्वोक्त टिप्पणी की भाषा में, क्षणिकवादी कह रहा है कि क ख में कुछ नवीनता नहीं लाता क्योंकि क तथा ख परस्पर समकालीन हैं।
उपकारी विरोधी च सहकारी च यो मतः । प्रबन्धापेक्षया सर्वो नैककाले कदाचन ॥४१९।। सहकारिकृतो हेतोविशेषो नास्ति यद्यपि ।। फलस्य तु विशेषोऽस्ति तत्कृतातिशयाप्तितः ॥४२०॥
"एक वस्तु अपनी समकालीन किसी दूसरी वस्तु का न उपकार कर सकती है, न उसका विरोध कर सकती है, न उसे किसी प्रकार की सहायता पहुँचा सकती है; यदि यह वस्तु उपकार आदि करती ही है तो इस दूसरी वस्तु से प्रारंभ होने वाली क्षण-परंपरा का । इस प्रकार यद्यपि एक सहकारिकारण अपने से संबन्धित मुख्य कारण में कुछ नवीनता नहीं लाता, लेकिन इस सहकारिकारण से प्राप्त कोई सामर्थ्यविशेष इस मुख्य कारण द्वारा जनित कार्य में कुछ नवीनता अवश्य लाती है।' इस पर हमारा उत्तर है :
टिप्पणी-पूर्वोक्त टिप्पणी की भाषा में, यद्यपि क ने ख में कोई नवीनता नहीं उत्पन्न की लेकिन यदि क न आया होता तो जहाँ हमें ग दिखाई पड़ रहा है वहाँ ख' दिखलाई पड़ रहा होता ।
न चास्यातत्स्वभावत्वे स फलस्यापि युज्यते ।
सभागक्षणजन्माप्तेस्तथाविधतदन्यवत् ॥४२१॥
जब तक उक्त मुख्य कारण में ही उस प्रकार का (अर्थात् अपने से विसदृश कार्य को उत्पन्न करने का) स्वभाव न माना जाएगा तब तक यह कहना
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org