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पाँचवाँ स्तबक
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__ और एक पदार्थ के 'उपलब्धिलक्षणप्राप्त' होने के अर्थ है उस पदार्थ की उपलब्धि कराने वाली शेष सब सामग्री का उपस्थित होना; लेकिन यदि किसी सामग्री के संबन्ध में यह कहा जा सकता है कि वह अमुक पदार्थ की उपलब्धि कराने वाली है तब इस पदार्थ को सत्ताशून्य कैसे माना जा सकता है ? । ।
सहार्थेन तज्जननस्वभावानीति चेन्ननु ।
जनयत्येव सत्येवमन्यथाऽतत्स्वभावता ॥३७९॥ .
कहा जा सकता है कि उक्त सामग्री का यह स्वभाव ही है कि वह उक्त पदार्थ की उपस्थिति में उस पदार्थ की उपलब्धि कराती ही है, लेकिन इस पर हमारा उत्तर है कि यह कहने का अर्थ भी तो यही हुआ कि उक्त पदार्थ के उपस्थित रहने पर उक्त सामग्री उस पदार्थ की उपलब्धि कराती ही हैं: क्योंकि यदि ऐसा न हो तो इस सामग्री-को उक्त स्वभाव वाली ही न कहा जा सकेगा।
योग्यतामधिकृत्याथ तत्स्वभावत्वकल्पना । हन्तैवमपि सिद्धो वः कदाचिदुपलब्धितः ॥३८०॥
तर्क दिया जा सकता है कि उक्त सामग्री को उक्त स्वभाव वाली इसलिए कहा जाता है कि उस सामग्री में उक्त पदार्थ की उपलब्धि को उत्पन्न करने की योग्यता है, लेकिन इस पर हमारा उत्तर है कि ऐसा कहने पर भी तो उक्त पदार्थ की सत्ता सिद्ध ही हो गई, क्योंकि अब तो इस पदार्थ की उपलब्धि कभी कभी हो ही जानी चाहिए ।।
अन्यथा योग्यता तेषां कथं युक्त्योपपद्यते । न हि लोकेऽश्वमाषादेः सिद्धा पक्त्यादियोग्यता ॥३८१॥
यदि ऐसा न हो (अर्थात् यदि उक्त पदार्थ की उपलब्धि कभी न होती हो) तो किसी भी सामग्री के संबन्ध में यह कहना कहाँ तक युक्तिसंगत होगा कि उसमें उक्त पदार्थ की उपलब्धि कराने की योग्यता है ? सचमुच, कुटका (जो पकने पर कभी नहीं गलता) आदि पदार्थों के सम्बन्ध में यह कभी सिद्ध नहीं किया जा सकता कि उनमें पकने आदि की योग्यता है ।
पराभिप्रायतो ह्येतदेवं चेदुच्यते न यत् । उपलब्धिलक्षणप्राप्तोऽर्थस्तस्योपलभ्यते ॥३८२॥
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