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पाँचवाँ स्तबक
(१) बाह्यार्थखंडन - खंडन
विज्ञानमात्रवादोऽपि न सम्यगुपपद्यते ।
मानं यत् तत्त्वतः किञ्चिदर्थाभावे न विद्यते ॥ ३७५ ॥
विज्ञान ही एकमात्र वास्तविक सत्ता है यह सिद्धान्त भी संगत प्रतीत नहीं होता, क्योंकि ऐसा कोई भी यथार्थ प्रमाण हमें प्राप्त नहीं जो बाह्य पदार्थों का अभाव सिद्ध कर सके ।
टिप्पणी — प्रस्तुत कारिका में हरिभद्र विज्ञानाद्वैतवाद का खण्डन - प्रारम्भ करते हैं जो इस समूचे स्तबक में चलेगा ।
न प्रत्यक्षं यतोऽभावालम्बनं न तदिष्यते । नानुमानं तथाभूतसल्लिङ्गानुपपत्तितः ॥३७६॥
बाह्य पदार्थों का अभाव प्रत्यक्ष द्वारा सिद्ध नहीं, क्योंकि प्रस्तुत वादी 'अभाव' को प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय नहीं मानता, और न ही यह अभाव अनुमान द्वारा सिद्ध है, क्योंकि इस अभाव का अनुमापक कोई समर्थ हेतु हमें प्राप्त नहीं ।
उपलब्धिलक्षणप्राप्तोऽर्थो यन्नोपलभ्यते ।
ततश्चानुपलब्ध्यैव तदभावोऽवसीयते ॥ ३७७ ॥
क्योंकि जो पदार्थ 'उपलब्धिलक्षणप्राप्त' होने पर भी उपलब्ध न हो उसकी अनुपलब्धि- तथा उसकी यह अनुपलब्धि ही उसके अभाव का निश्चय कराने वाली है ।
उपलब्धिलक्षणप्राप्तिस्तद्धत्वन्तरसंहतिः ।
एषां च तत्स्वभावत्वे तस्यासिद्धिः कथं भवेत् ॥ ३७८ ॥
१. क का पाठ : द्यतो भावा । २. क का पाठ : 'तल्लिङ्गा' । ३. ख का पाठ : येनोप ।
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