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शास्त्रवार्त्तासमुच्चय
कहा जा सकता है कि प्रस्तुत वादी उक्त सब बातें (अर्थात् बाह्य पदार्थो की उपलब्धि सम्बन्धी सब बातें) अपने विरोधियों की मान्यता को ध्यान में रख कर कर रहा है, लेकिन इस पर हमारा उत्तर है कि यह कहने से काम नहीं चलेगा, क्योंकि इन विरोधियों का तो यह विश्वास है कि 'उपलब्धिलक्षणप्राप्त' होने पर बाह्य पदार्थों की उपलब्धि हुआ ही करती है ( न कि नहीं हुआ करतीजैसी कि प्रस्तुतवादी की मान्यता है ) ।
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अतद्ग्रहणभावैश्च यदि नाम न गृह्यते ।
तत एतावताऽसत्त्वं न तस्यातिप्रसंगतः ॥ ३८३ ॥
कहा जा सकता है कि बाह्य पदार्थों को ग्रहण करना जिस सामग्री का स्वभाव नहीं उसके द्वारा बाह्य पदार्थों का ग्रहण नहीं होता, लेकिन इस पर हमारा उत्तर है कि इससे यह तो सिद्ध नहीं होता कि बाह्य पदार्थ सत्ताशून्य है; क्योंकि यदि ऐसा माना जाए तब तो अवाञ्छनीय निष्कर्ष सिर पर आ पड़ते हैं (वह इसलिए कि तब तो किसी भी पदार्थ के संबन्ध में कहा जा सकेगा कि वह सत्ताशून्य है क्योंकि उसका ग्रहण वह सामग्री नहीं करती जिसका स्वभाव उसे ग्रहण करना नहीं ) ।
विज्ञानं यत् स्वसंवेद्यं न त्वर्थो युक्त्ययोगतः । अतस्तद्वेदने तस्य ग्रहणं नोपपद्यते ॥ ३८४॥
एवं चाग्रहणादेव तदभावोऽवसीयते ।
अतः किमुच्यते मानमर्थाभावे न विद्यते ॥ ३८५॥
कहा जा सकता है : "विज्ञान एक स्वसंवेद्य वस्तु है (अर्थात् अपना ज्ञान आप करने वाली एक वस्तु है) जबकि बाह्य पदार्थ उस स्वभाव वाले नहीं, और वह इसलिए कि बाह्य पदार्थों को स्वसंवेद्य मानना अयुक्तिसंगत है । ऐसी दशा में 'विज्ञान को ग्रहण करते समय बाह्य पदार्थों का भी ग्रहण हो' यह बात बनती नहीं । और यही वस्तुस्थिति कि बाह्य पदार्थों का ग्रहण नहीं होता यह भी निश्चय करा देती है कि बाह्य पदार्थ सत्ताशून्य हैं । तब फिर कैसे कहा जा सकता है कि ऐसा कोई भी प्रमाण हमें प्राप्त नहीं जो बाह्य पदार्थों का अभाव सिद्ध कर सके ?" इस पर हमारा उत्तर है :
१. ख का पाठ : तदग्रहण' ।
२. ख का पाठ : ता सत्त्वं ।
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