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शास्त्रवार्तासमुच्चय बाद जो रूप आदि उक्त रूप आदि से उत्पन्न होते हैं वे मनोज्ञान का विषय हुआ करते हैं, और ऐसी दशा में पाँच बाह्य पदार्थों को दो इन्द्रियों द्वारा जाने जा सकने योग्य कहने में कोई असंगति नहीं ।" लेकिन इस पर हमारा उत्तर है कि ऐसा कहना भी न्यायसंगत नहीं ।
नैकोऽपि यद् द्विविज्ञेय एकैकेनैव वेदनात् । सामान्यापेक्षयैतच्चेन्न तत्सत्त्वप्रसंगतः ॥३७२॥
क्योंकि अब भी यह तो सिद्ध नहीं हुआ कि कोई एक ही पदार्थ दो इन्द्रियों द्वारा जाना जा सकता है और वह इसलिए कि उक्त स्थल में भी दो ज्ञानों ने दो अलग अलग पदार्थों को विषय बनाया है (न कि एक ही ज्ञान ने दो पदार्थों को) । प्रस्तुत वादी यह भी नहीं कह सकता कि उसके मन्तव्य का आधार यह वस्तुस्थिति है कि उक्त दो पदार्थ एक ही सामान्य का आश्रय होते हैं (और इसलिए यह कहना अनुचित नहीं कि यहाँ किसी एक ही वस्तु को दो इन्द्रियों द्वारा जाना जा रहा है), क्योंकि तब तो वह यह मानने को विवश हो गया कि सामान्य एक वास्तविक पदार्थ है ।
टिप्पणी-अनेक एकजातीय व्यक्तियों में समान भाव से रहने वाले एक नित्य पदार्थ को 'सामान्य' (अथवा 'जाति') कहते हैं यह न्यायवैशेषिक आदि दार्शनिकों की मान्यता है, लेकिन क्षणिकवादी बौद्ध को यह मान्यता स्वीकार्य नहीं। उसके मतानुसार तो इस प्रकार का सामान्य एक मन की कल्पना मात्र है । इसलिए हरिभद्र अगली कारिका में कहेंगे कि क्षणिकवादी यदि 'सामान्य' को एक वास्तविक पदार्थ मान ले तो भी वह उसे दो इन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्ष किया जाने योग्य पदार्थ नहीं मान सकता (भले ही उसके मतानुसार मन भी इन्द्रिय क्यों न हों) ।
सत्त्वेऽपि नेन्द्रियज्ञानं हन्त ! तद्गोचरं मतम् । द्विविज्ञेयत्वमित्येवं क्षणभेदे न तत्त्वतः ॥३७३॥
और यदि सामान्य को एक वास्तविक पदार्थ मान भी लिया जाए तो भी यह बात अपने स्थान पर सच है कि प्रस्तुत वादी सामान्य को इन्द्रियविशेषों द्वारा (अथवा मन-इन्द्रिय द्वारा) जाना जा सकने योग्य (अर्थात् प्रत्यक्ष किया जा सकने योग्य) नहीं मानता (और ऐसी दशा में सामान्य के सम्बन्ध में यह कहने का प्रश्न ही नहीं उठता कि वह दो इन्द्रियों द्वारा जाना जा सकने योग्य है)।
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