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________________ ११४ शास्त्रवार्तासमुच्चय एक ही व्यक्ति हैं । और तब हरिभद्र का यह प्रश्न अपने स्थान पर बना रहता है कि उक्त दो वस्तुएँ एक व्यक्ति कैसे । ममेति हेतुशक्त्या चेत् तस्यार्थोऽयं विवक्षितः । नात्र प्रमाणमत्यक्षा तद्विवक्षा यतो मता ॥३६४॥ कहा जा सकता है कि उक्त स्थल में 'मैं' शब्द से भगवान का 'मेरी हेतुशक्ति' से है, लेकिन इस पर हमारा उत्तर है ऐसा कहना प्रमाणसिद्ध नहीं और वह इसलिए कि (प्रस्तुत वादी के अपने ही मतानुसार) वक्ता का आशय एक अतीन्द्रिय (अतः अज्ञेय) वस्तु हुआ करता है । टिप्पणी-क्षणिकवादी का कहना है प्रस्तुत वाक्य में भगवान् बुद्ध का आशय यह है कि इस वाक्य का वक्ता तथा इस वाक्य में वर्णित वधक्रिया का कर्ता एक ही कार्यकारणपरम्परा के एक वर्तमान घटक तथा एक भूतपूर्व घटक क्रमशः हैं । इस पर हरिभद्र यह उत्तर नहीं देते कि इस वाक्य के शब्दों को यह अर्थ पहनाना क्लिष्ट कल्पना है बल्कि यह कि (प्रस्तुत वादी के मतानुसार) एक व्यक्ति के मन का आशय जानना दूसरे व्यक्ति के लिए संभव नहीं । तद्देशना प्रमाणं चेत् न साऽन्यार्था' भविष्यति । तत्रापि किं प्रमाणं चेदिदं पूर्वोक्तमार्षकम् ॥३६५॥ कहा जा सकता है इस सम्बन्ध में भगवान् का उपदेशविशेष ही प्रमाण है, लेकिन इस पर हमारा उत्तर है प्रमाण रूप से प्रस्तुत किए गए भगवान् के उस उपदेश का कुछ और ही अर्थ होना चाहिए ( न कि प्रस्तुत वादी का अभीष्ट अर्थ) और यदि पूछा जाए कि हमारे इस उत्तर के पक्ष में प्रमाण क्या है तो हम कहेंगे : "वही बुद्धकथन जिसका उल्लेख हमने अभी ऊपर किया" । टिप्पणी-क्षणिक वादी का कहना है कि वह किन्हीं ऐसे बुद्ध वचनों को उद्धृत कर सकता है जिसमें क्षणिकवादी का सीधा समर्थन किया गया है; हरिभद्र का उत्तर है कि उन बुद्धवचनों का कुछ दूसरा ही अर्थ होना चाहिए और वह इसलिए कि जिस बुद्धवचन की चर्चा अभी होकर चुकी है वह क्षणिकवाद के विरुद्ध जाता है । तथाऽन्यदपि यत् कल्पस्थायिनी पृथिवी क्वचित् । उक्ता भगवता भिक्षूनामन्त्र्य स्वयमेव तु ॥३६६॥ १. ख का पाठ : साऽन्यर्था । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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