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चौथा स्तबक
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टिप्पणी-प्रस्तुत कारिका से हरिभद्र यह दिखाना प्रारंभ करते हैं कि बौद्ध धर्मग्रन्थों में कही गई कुछ बातें ही क्षणिकवाद के विरुद्ध किस प्रकार जाती हैं।
इत एकनवते कल्पे शक्त्या में पुरुषो हतः । तेन कर्मविपाकेन पादे विद्धोऽस्मि भिक्षवः ॥३६१॥ मे मयेत्यात्मनिर्देशस्तद्गतोक्ता वधक्रिया । स्वयमाप्तेन यत् तद् वः कोऽयं क्षणिकताऽऽग्रहः ॥३६२॥ .
"हे भिक्षुओं ! अब से पहले ९१ वें कल्प में मेरे एक शस्त्र से एक पुरुष मारा गया था, उस कार्य का यह फल है कि मेरा पैर कांटे से बिंधा है।" इस कथन में 'मैं', 'मेरे द्वारा' आदि शब्दों से वक्ता का अपना सूचन हुआ है तथा उसी के संबंध में (अर्थात् वक्ता के अपने संबंध में) वधक्रिया का उल्लेख एक आप्त व्यक्ति द्वारा (अर्थात् भगवान् बुद्ध द्वारा) हुआ है । ऐसी दशा में प्रस्तुतवादी का क्षणिकवाद के पक्ष में इतना आग्रह क्यों ?
टिप्पणी-हरिभद्र का आशय यह है कि प्रस्तुत वाक्य का वक्ता तथा प्रस्तुत वाक्य में वर्णित वध-क्रिया का कर्ता एक ही व्यक्ति होना चाहिए.---जबकि क्षणिकवादी की मान्यतानुसार ये दोनों एक व्यक्ति नहीं हो सकते । यहाँ यशोविजयजी 'शक्त्या मे पुरुषो हतः' का अर्थ करते हैं "मेरे एक व्यापार से (अर्थात् मेरे किए एक काम से) एक पुरुष मारा गया था ।" 'कल्प' चार करोड़ बत्तीस लाख वर्ष की अवधि को कहते हैं ।
सन्तानापेक्षयैतच्चेदुक्तं भगवता ननु । स हेतुफलभावो यत् तन्मे इति न संगतम् ॥३६३॥
कहा जा सकता है कि उक्त स्थल में भगवान् बुद्ध ने क्षणसंतान (=क्षणपरंपरा को दृष्टि में रखकर बात की है, लेकिन इस पर हमारा उत्तर है कि क्षणसंतान कार्यकारणभाव से अतिरिक्त कोई वस्तु नहीं और ऐसी दशा में प्रस्तुत वादी के मतानुसार उक्त स्थल में 'मेरा' शब्द का प्रयोग अयुक्तिसंगत ठहरना चाहिए ।
टिप्पणी-हरिभद्र का आशय यह है कि 'अमुक दो वस्तुएँ एक ही क्षणपरंपरा की घटक हैं' क्षणिकवादी के इस कथन का अर्थ यही होना चाहिए कि इन दो वस्तुओं के बीच कार्यकारणभाव है-न कि यह कि ये दो वस्तुएँ Jain Education International For Private & Personal Use Only
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