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टिप्पणी- हरिभद्र के कहने का आशय यह है कि किन्हीं दो वस्तुओं के बीच अविनाभाव संबन्ध ( = हेतु साध्य - सम्बन्ध) तब तक नहीं जाना जा सकता जब तक उन दोनों वस्तुओं को कभी न कभी एक साथ ज्ञानगोचर न कर लिया जाए; वरना तो (उदाहरण के लिए) धूम को देखकर अग्नि का अनुमान करना ही उस व्यक्ति के लिए भी संभव हो जाना चाहिए जिसने कभी अग्नि को देखा नहीं ।
चौथा स्तबक
समनन्तरवैकल्यं तत्रेत्यनुपपत्तिकम् ।
तुल्ययोरपि तद्भावे हन्त क्वचिददर्शनात् ॥३३६॥
कहा जा सकता है कि जहाँ धूम के ज्ञान के बाद भी अग्नि का (अनुमानात्मक) ज्ञान नहीं होता वहाँ इस धूमज्ञान के समनन्तर - कारणभूत ज्ञान का अभाव होता है; लेकिन यह कहना उचित नहीं क्योंकि एक से समनन्तर कारण वाले दो धूमज्ञानों के संबन्ध में भी यह संभव है कि उनमें से एक के बाद अग्नि का अनुमानात्मक ज्ञान हो तथा दूसरे के बाद नहीं ।
टिप्पणी — जैसा कि पहले प्रसंगवश कहा जा चुका है, क्षणिक वादी के मतानुसार रूपप्रत्यक्ष का एक कारण ज्ञाता की तत्कालीन मनःस्थिति है और इस कारण का सामान्य पारिभाषिक नाम 'समनन्तर - प्रत्यय' है । इसी प्रकार प्रत्येक ज्ञान के सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि उसका समनन्तर- प्रत्यय ज्ञाता की तत्कालीन मनः स्थिति है । अतः जब क्षणिक वादी कहता है कि जिस धूमज्ञान से अग्नि का अनुमान नहीं हो पाता है उसका समनन्तर कारण त्रुटिपूर्ण है तब उसका आशय यही जताना है कि इस स्थल में ज्ञाता की तत्कालीन मन:स्थिति त्रुटिपूर्ण है— अर्थात् यह कि वहाँ ज्ञान के अब तक के उपार्जित ज्ञानभंडार में 'धूम तथा अग्नि के बीच अविनाभाव संबन्ध का ज्ञान' का समावेश नहीं । प्रस्तुत कारिका में हरिभद्र क्षणिकवादी का आशय यह समझ रहे हैं कि जो ज्ञाता धूमज्ञान से अग्नि का अनुमानात्मक ज्ञान कर पाता है उसकी तात्कालिक मनःस्थिति एकस्वरूप वाली होती है तथा जो ज्ञाता धूमज्ञान से अग्नि का अमुमानात्मक ज्ञान नहीं कर पाता है उसके दूसरे स्वरूप वाली (अर्थात् यदि पहले ज्ञाता की तात्कालिक मनःस्थिति 'क का ज्ञान' इस स्वरूप वाली है तो दूसरी की 'ख का ज्ञान' इस स्वरूप वाली) । अगली कारिकाओं में हरिभद्र क्षणिक वादी के आशय को अन्य प्रकार से भी समझने का प्रयत्न करते हैं— यद्यपि इस सम्बन्ध में क्षणिक वादी के सभी संभव आशय उनकी
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