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शास्त्रवार्तासमुच्चय
दृष्टि में आपत्तिजनक बने रहते हैं ।
न तयोस्तुल्यतैकस्य यस्मात् कारणकारणम् ।
ओघात् तद्धेतुविषयं न त्वेवमितरस्य च ॥३३७॥
उत्तर में कहा जा सकता है कि उक्त स्थल में दो धूम-ज्ञानों के समनन्तरकारण वस्तुतः एक से नहीं और वह इसलिए कि इनमें से केवल एक समनंतर-कारण का न कि दूसरे का भी—कोई दूरस्थ कारण एक ऐसे प्रकार का ज्ञान है जिसका विषय धूम का कारण है (अर्थात् इनमें से केवल एक समनन्तर कारण का—न कि दूसरे का भी—कोई दूसरा कारण अग्नि-ज्ञान है)। लेकिन इस पर हमारा उत्तर हैं :
यः केवलानलग्राहिज्ञानकारणकारणः ।
सोऽप्येवं न च तद्धेतोस्तज्ज्ञानादपि तद्गतिः ॥३३८॥
जिस धूम-ज्ञान के समनन्तर-कारण का कोई (दूरस्थ कारण), केवल अग्नि का ज्ञान होता है (न कि धूम-सहित अग्नि का ज्ञान) उस पर भी प्रस्तुत वादी का उक्त वर्णन लागू पड़ता हैं, लेकिन इतने भर से इस धूमज्ञान से अग्नि का अनुमानात्मक ज्ञान नहीं होता ।
तज्ज्ञानं यन्न वै धूमज्ञानस्य समनन्तरः ।
तथाऽभूदित्यतो नेह तज्ज्ञानादपि तद्गतिः ॥३३९॥
उत्तर में कहा जा सकता है कि इस नए स्थल में एक अग्निज्ञान एक धूमज्ञान का समनन्तर-कारण उस प्रकार से नहीं हुआ जैसे कि उसे होना चाहिए (अर्थात् जैसे कि उसे अग्नि तथा धूम के बीच अविनाभावसंबन्ध-ग्रहण के समय होना चाहिए) और यही कारण है कि इस प्रकार के अग्निज्ञान वाला व्यक्ति धूमज्ञान से अग्नि का अनुमानात्मक ज्ञान नहीं कर पाता । लेकिन इस पर हम पूछते हैं :
. तथेति हन्त ! को न्वर्थः तत्तथाभावतो यदि ।
इतरत्रैकमेवेत्थं ज्ञानं तद्ग्राहि भाव्यताम् ॥३४०॥
'इस नए स्थल में एक अग्निज्ञान एक धूमज्ञान का समनन्तर-कारण उस प्रकार से नहीं हआ जैसे कि उसे होना चाहिए' यह कहने का क्या अर्थ ? यदि इसका अर्थ यह है कि नए स्थल में एक अग्निज्ञान ही एक धूमज्ञान के
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