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शास्त्रवार्तासमुच्चय हमारे लिए संभव है।
एकमर्थं विजानाति न विज्ञानद्वयं यथा । विजानाति न विज्ञानमेकमर्थद्वयं तथा ॥३३२॥
(प्रस्तुत वादी की तर्क-सरणि के अनुसार तो) जिस प्रकार दो ज्ञान एक ही वस्तु को अपना विषय नहीं बना सकते उसी प्रकार एक ज्ञान दो वस्तुओं को अपना विषय नहीं बना सकता ।
वस्तुस्थित्या तयोस्तत्त्वे एकेनापि तथाग्रहात् । नो बाधकं न चैकेन द्वयोर्ग्रहणमस्त्यदः ॥३३३॥
कहा जा सकता है "जब स्थिति ऐसी हो कि (आगे-पीछे आने वाली) दो वस्तुओं के बीच कार्य-कारण भाव वर्तमान है तब एक ही ज्ञान को इन्हें इस रूप में ग्रहण करने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए तथा यह एक ज्ञान द्वारा दो वस्तुओं के ग्रहण किए जाने की स्थिति नहीं हुई (और वह इसलिए कि यहाँ ज्ञान का विषय उक्त दो वस्तुओं में से एक ही है जब कि दूसरी वस्तु के साथ इस वस्तु का संबंध इस वस्तु का विशेषण मात्र है) लेकिन इस पर हमारा उत्तर है :
तथाग्रहस्तयोर्नेतरेतरग्रहणात्मकः ।
कदाचिदपि युक्तो यदतः कथमबाधकम् ॥३३४॥
उक्त दो वस्तुओं में से पहली को दूसरी के कारण रूप से जानना दूसरी को भी जानना है तथा दूसरी को पहली के कार्य रूप से जानना पहली को भी जानना है; और इस रूप से इन वस्तुओं को जानना एक एक ज्ञान के लिए कदापि संभव नहीं । ऐसी दशा में यह कैसे कहा जा सकता है कि उक्त वस्तुस्थिति प्रस्तुत वादी के सामने कोई कठनाई उपस्थित नहीं करती ।
तथाग्रहे च सर्वत्राविनाभावग्रहं विना । - न धूमादिग्रहादेव ह्यनलादिगतिः कथम् ॥३३५॥
यदि किसी भी वस्तु का एक दूसरी वस्तु से संबंधित रूप में ग्रहण इस दूसरी वस्तु के बिना संभव हो तब धूम तथा अग्नि के बीच अविनाभाव संबन्ध का ग्रहण किए बिना भी केवल धूम के ज्ञान से अग्नि का (अनुमानात्मक) ज्ञान क्यों नहीं हो जाता ?
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