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चौथा स्तबक
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वास्य-वासकभावश्च न हेतुफलभावतः । तत्त्वतोऽन्य इति न्यायात् स चायुक्तो निदर्शितः ॥३२९॥
फिर वास्य-वासक भाव कार्य-कारण भाव से तत्त्वत: भिन्न कोई वस्तु नहीं, और यह हम दिखा ही चुके कि प्रस्तुत वादी का मत स्वीकार करने पर कार्य-कारण भाव का सिद्धान्त अयुक्तिसंगत ठहरता है ।
(६) क्षणिकवाद में कार्यकारण ज्ञान की अनुपपत्ति
तत् तज्जननस्वभावं जन्यभावं तथाऽपरम् ।
अतः स्वभावनियमान्नायुक्तः स कदाचन ॥३३०॥
कहा जा सकता है : 'कार्य को जन्म देना कारण का स्वभाव है तथा कारण द्वारा जनित होना कार्य का स्वभाव है, और इस प्रकार जब कारण तथा कार्य का अपना अपना स्वभाव निश्चित है तब कार्य कारण भाव के सिद्धान्त को अयुक्तिसंगत कभी नहीं कहा जा सकता ।' इस पर हमारा उत्तर है :
टिप्पणी प्रस्तुत कारिका में हरिभद्र एक अन्य नई चर्चा के लिए भूमिका तैयार करते हैं । उन्होंने अभी कहा है कि क्षणिकवादी का मत स्वीकार करने पर कार्य-कारण भाव का सिद्धान्त अयुक्तिसंगत ठहरता है। अब वे यह दिखलाने चलते हैं कि क्षणिकवादी का मत स्वीकार करने पर हमारे लिए यह जानना संभव नहीं होना चाहिए कि किन्हीं दो वस्तुओं के बीच कार्य-कारण सम्बन्ध वर्तमान है।
उभयोर्ग्रहणाभावे न तथाभावकल्पनम् ।
तयोाय्यं न चैकेन द्वयोर्ग्रहणमस्ति वः ॥३३१॥
दो वस्तुओं को एक ही ज्ञान का विषय बनाए बिना उनके बीच कार्यकारण भाव की कल्पना करना युक्तिसंगत नहीं लेकिन प्रस्तुत वादी के मतानुसार दो वस्तुएँ एक ही ज्ञान का विषय हो नहीं सकतीं ।।
टिप्पणी-प्रस्तुत चर्चा में क्षणिकवादी के विरुद्ध हरिभद्र की मुख्य आपत्ति यही है कि वह एक ज्ञान का विषय एक ही वस्तु को मानता है, एकाधिक वस्तुओं को नहीं । यदि क्षणिकवादी यह मान ले कि एक ज्ञान का विषय एकाधिक वस्तुएँ बन सकती हैं तो हरिभद्र को यह मानने में कोई तात्त्विक आपत्ति न होगी कि दो वस्तुओं के बीच कार्य-कारण भाव का ज्ञान प्राप्त करना
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